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जोगणो देवी है सो अपना भरतार करै। तहां देवांगना के भोग भोगना मनुष्यन को कहा बात है। तात तूं शस्त्र धारा तीर्थ ते मरि। सो यह भोगार्थी भोला जीव ऐसी ही मानि धारा तीर्थ स्वीकार किया। सो हे भव्य ! यह धारा तीर्थ हास्थ वचन त चल्या है ताते हेध है। यह शस्त्र तैं आप मरै सो महासंक्लेश भाव होय और कं आप रणमैं मार सो महारौद्र भाव होय। सो परघात करनेहारे पापभार सू' देव लोक कैसे होय ? परन्तु जैसेअज्ञान पतंग दीप कू महासुन्दर जानि शिषय-भोग के लोभ नैं दीपक मैं पड़ि भस्म होय है। क्योंकि र पतंग ज्ञान रहित है। तातें अपना पुण्य तो नहीं समझ है। अरु बड़े भोग चाह है। तात मरणका पाय हीन ही गतिमैं उपज है । तैसे ही र भोगामिलाषी शस्त्र के मरणकू तीर्थ को कल्पना करि शस्त्र धारारूपी दीपक मैं पतंग की नाई भस्म होय हैं । सो रौद्र-भावन त मरि अशुभ गति जाय हैं। देव सुख तौ शोल पालना तप, जप, संथम करना दान देना, प्रभु सेवा पूजा करना, दया-भाव राखना. समता पालनो इत्यादिक पुण्य भावनत होय । तात हे सुबुद्धि ए तीर्थ नाहीं। शस्त्रधारा कुतीर्थ है। तातै विवेकः तजने योग्य है। हे भाई! जो शस्त्रधारा का मररा तीर्थ होता। तो जगत् जीव शस्त्र ते डरते नाही सब ही शस्त्र तैं मरते। यह तौ महासुगम है। निकट ही है। कछु धन लागता नाहीं। परन्तु तू विचार। जो लोग खेद खाघ लाखौं धन खरचि, हजारों कोस तीर्थन कू जाय हैं, अरु शस्त्र त डरे हैं। तातै ए कुतीर्थ जानना और यहां कोई कुबुद्धि कहै जो यह धारा तीर्थ हर जगह के करने नाहीं। महासूरमा के करने का है। तो भो भव्य सुनि। बड़े-बड़े महान वंश के उपजे सूरमा राजा, आगे राज सम्पदा छोड़ि युद्ध-शस्त्रघात छोडि समता धारि तप लेय वन मैं तिष्ठ समता भाव धर नाना प्रकार तप करते, शुभ मान्या । मलो देवादि गति गर, सुखी भए। जो शस्त्र-धारा ते भला होता तौ महासामन्त कुल के, तप काहे को लेते ? तातें धारा-तीर्था तजने योग्य हेय है। अरु केई भोले जीव नदीन के जल तैं पाप उतरता माने हैं। जो उन नदी के जल मैं मान कर पाय-मल धुवै है। सो यह कहनेवाला भोला है। शिथिल श्रद्धानी है। धर्म-गांठ रहित है। इस ही बात पैहद खड़ा नहीं रहै है। याहीको कहिए हैं। जो इस शूद्र से मिट्टी का कलश लैय के इस
नदी के जलमैं दश-पांच बार अच्छो रोति से धोय लेय। जिससे वे शूद्र का मिट्टी का कलश, पवित्र होय । ता पीडीए सौगात मपो मानकरी। तो यह कर ये का बर्तन मिनी