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उत्पत्ति की पंक्ती ताकी छेदनहारी है। कैसी स्तुति करें ? सो कहिये है---
他
अर्थ- आप भक्ति रस करि भींजते मुनीश्वर भगवान् की स्तुति करें। भी भगवन् ! तुम अष्ट कर्म रहित वीतरागी हो आपके राग-द्वेष भाव नाश हो गये हैं। सो हैं भगवान्! तुम तौ भक्तनकौं स्वर्ग-मोक्ष नहीं करौ हौ । परन्तु हे भगवन् ! हमसे भक्तजन हैं तिनके भावन की प्रवृत्ति आपके चरण-कमलन मैं भक्ति रूप भई । सो वह भाव भक्ति हो भक्तन कूं स्वर्ग-मीत की दाता है। आपतौ वीतराग हो ही परन्तु भक्ति की महिमा अपार है । तातें इस बात निश्चय भई जो आप वीतरागी ही हो।
श्लोक - घोरसंसारगम्भीरे, वारिराशीनिमज्जताम् । दत्तहस्तावलम्बस्य जिनस्येक्षणार्थमागमेन् ॥ ४ ॥
अर्थ - हे भगवन् ! यह संसार-सागर दुख-जलि करि भरया । तिस विषै डूबते हमसे संसारी जीव तिनकों हस्तावलम्बन कर आप काढ़ौ हो । सो तिहारे देखवेकों भक्तजन आ हैं। भावार्थ-जिनदेव की स्तुति मुनिजन करें हैं। हे नाथ ! यह संसार-सागर महागम्मीर जाका छोर नाहीं । तामैं पड़ते ( गिरते ) हमसे संसारी जीव तिनकूं आप अपनी वाणीरूपी हस्तावलम्बन का सहाय देय दया भाव करि भव जल मैं डूबते बचावें । तातें है प्रभु ! तुम परम उपकारी जानि आपके दर्शनकूं हम आये हैं तथा संसार जल में डूबते भव्य जीव तिन दया भाव करि जाय अनेक जीव डूबते बचाव हैं। सो तिहारा जगत् यश सुनि जे भव्य हैं सो तिहारे देखवे आये हैं । तिन भव्यन का भी यही मनोरथ हैं। जो हे भगवन् ! हमकूं भी संसार समुद्र मैं ते डूबने ते राखौ । इत्यादिक वीतरागी मुनि भी जिनदेव की स्तुति ऐसे करें हैं। विनय तें हस्त, पाँव धोय हर्ष आनन्द सहित धरती देखते ईर्ष्या करते जिनदेव के मन्दिरन मैं जोये हैं। तातें अब भी जो भव्य जीव हैं जिनकी भक्ति का फल लैना होय, सो भव्य जीव धर्मात्मा मन-वचन-काय की क्रिया शुद्ध करि हर्ष सहित जिन-दर्शन कूं करना, सो ईर्ष्या सहित करना योग्य है। आगे कहे हैं जो यह मुनि अपनी प्रमाद अवस्थातें मन-वचन-कायतें, कोई क्रिया मैं सूक्ष्म अतीचार लगे तो ताके मेटवेकौं कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग उसका नाम है जो अपनी भूलि की आलोचना, निन्दा, गह करे सो कायोत्सर्ग कहिए । सो केतेक काल तांई कायोत्सर्ग करे ?
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इली- तथादादणवचास्त रागद्वेष प्रवृत्तयः । भक्ति: भयनुसारेण, स्वर्गमोक्षफलप्रदा ॥ ३ ॥
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