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भेदन का प्रश्न विशेष ज्ञानीनत करना, 'सो स्वाध्याय है। जहां जिन भाषित तत्त्वन की प्रतीति करना कि जो li जिनदेव ने कहा है सो प्रमाण है। वही पिन-अज्ञा-प्रभास श्रद्धान का करना। ताही आगम प्रमाण आप रहना ।
सो आम्नाय भेद स्वाध्याय है। जहां भव्य जीतनकं मोक्षमार्ग होवे क परभव सुधारवे कू संसार दुख मेटवे कू तत्त्वज्ञान बढ़ावे कं आत्मिक ज्ञान की प्राप्ति होवे कू परोपकार परिणति करि और जीवन क धर्म का उपदेश देना, सो धर्मोपदेश स्वाध्याय है। अङ्गीकार किया उपदेश ताकौ चलते-बैठते-सोवते सदैव चिन्तन करि सांसारिक पदार्थन का यथावत् चिन्तन करना। संसार दशा कू अथिर विचारना तथा इस जोव कं मरण समय कोई शरण नाहीं। माता-पिता, मन्त्र-मन्त्र-जन्त्र, देव, इन्द्र, व्यन्तरादिक कोई याकों शरण नाहीं। याके शरण याके सहाथ कोई नहीं है। ऐसे अनेक नयन करि वस्तु कू अशरण जानि चिन्तन करना, सो अशरण चिन्तन है। संसार षट इन्धन करि भर या ता विर्षे जीव पर-वस्तु • मोहभाव कर अपनी मानता ता.वि. रति भाव मानता, सो संसार भाव चिन्तन है। संसार मैं र जीव अनादिकाल का च्यारि गति मैं भ्रमण करता सुख-दुख का भोगता होय है । सो राकला आत्मा ही है। कोई नाहीं। जब जीव अपने शुभ भाव करि देव होय तब नाना सुख का भौगता एकला ही होय है। जब अपने पाप भाव करि जीव नरक जाय है। तब दुख भी एकला ही भोगवै है। तिर्यंच-मनुष्य विौं भी प्रसिद्ध दीखे ही है। जब इस प्राणीको पाप उदयतें तीव्र दुक्ख होय है। तो सर्व कुटाब-जन देखा ही करें हैं। ये ही पड़या विलाप करें है। कोऊ बटाबता नाहों। च्यारि गति के दुख-सुख एकला आत्मा ही भोगवे है ऐसा चित्त मैं विचारै, सो एकत्व-भाव चिन्तन है। संसार मैं जेते पदार्थ हैं तेते कोई काहूतें मिलता नाहीं। सर्व अपने-अपने स्वभाव करि अन्य-अन्य हैं । ऐसा विचार होय सो अन्यत्व-भाव-चिन्तन है। शरीर अशुचि पुद्गल पिण्डमग्री अपावन सप्तधातु का मन्दिर ग्लानि का स्थान ता विर्ष निर्मल आत्मा अमूर्तिक ज्ञानमयी कर्मवश तें एक-मेक दीसे है; परन्तु अपने चैतन्ध भावकं नहीं तजै । यहाँ प्रश्न—जा शरीरको ऐसा ग्लानि का स्थान बताय कथन किया सो यामैं ज्ञान की कहा महत्वता भई ? अरु शरीर कू ऐसा ग्लानि रूप श्रद्धान करे तो श्रोतान के कषायन की क्या समानता भई ? यामैं तो एक दुरगच्छा नाम कर्म और बन्ध्या। दुरगंच्छा प्रगट भये सम्यग्दर्शन कं मलिनता मावेगी। तातै शरीर त ग्लानि मैं तो कुछ नफा नहीं भास है? ताका