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मयी रहतें कछू उपाय-खेद नहीं करना है होना मूर्तिक होना महादुर्लभ है। अनेक कष्ट खाए भी जड़त्व - मूर्तिक नहीं भया जाय है । इत्यादिक चिन्तन सो दुर्लभानुचिन्तन है। ऐसे अनेक प्रकार जिन भाषित तत्त्वनि का चिन्तन सो अनुप्रेना नाम स्वाध्याय भेद है। ऐसे पञ्च भेद स्वाध्याय कह्या । तन ममता भाव रहित होय एकासन खड़ा ध्यान करना सौ कायोत्सर्ग तप है। जहाँ मन-वचन की एकता रूप धर्म्य ध्यानरूप भावना की धिरता और कषायन की मन्दता सहित आपा-पर के निर्धाररूप ध्यान करना सो ध्यान नाम तप है। ऐसे बारह प्रकार तप हैं। सो सु-तप उपादेय हैं। इति तप विष
- हेय उपादेय कथा आगे व्रत विषै ज्ञेय हेय उपादेय कहिये हैं । जहाँ सुव्रत व कु व्रत का समुच्चय जानना सो तो ज्ञेय है । ताही के दो भेद हैं। एक सुव्रत और एक कु-व्रत । जहां भोरे जीवन के प्ररूपे परमार्थ शून्य अपनी अज्ञान चेष्टा करि जो व्रत करें सो कुन्त्रत है। केतेक तौ क्रोध पोखवे के व्रत हैं। केतैक मान पोखवे के हैं । केतेक माया पोखवे के व्रत हैं। केतक लोभ पोखवे के व्रत हैं। ऐसे क्रोध, मान, माया, लोभ पोखवे कौं जो व्रत हैं सो सम्यग्दृष्टि मैं है हैं। जहां पर जीवन के मारवे शत्रु आदि के दुख देवेकों इत्यादिक विचार सहित व्रत करना यथा- जो मेरा फलाना शत्रु है, सो क्षय होहु । ताके निमित्त एक बार खाना, बहुत धन दान देना, पूजा- उपवास करना, रस रहित खाना, भूमि सोवना, नांगे पांव फिरना, एक अत्र ही खाना, एक रस ही खाना इत्यादिक विधि सहित उपवास व्रत करना, सो क्रोध सहित व्रत कहिए। अपनी आज्ञा कोई नहीं मानता होय, वश नहीं होता होय। ताके वश करवे कूं अपने बल को समर्थता तौ नाहीं, अरु मान पोखा चाहै। ताके निमित्त कोई देवव्धन्तर के साधनकं व्रत करना, पराया मान खण्डन कूं व्रत करना, सो मान पोखि व्रत है । जो व्रत आप छल सहित करै। परिणाम तौ दुराचार रूप और लोकन के दिखावेकूं, आप धर्मो बाजकू व्रत का करना, सो माया पोखि व्रत है। अन्य जीवन के धन हरवेकूं, हाथी-घोड़ा हरवेकू मन्दिर हरवेकू, नाना युक्ति के व्रत करना। तहां ऐसा विचारना जो मोकौं राज मिलें, पुत्र मिले, कुटुम्ब की वृद्धि होय या व्रत तैं धन मिले इत्यादि व्रत हैं । सो लोभ पोषित व्रत हैं। तिन व्रतन की लौकिक मैं भोरे जीवन मैं ऐसी प्रवृत्ति है कि जो यह व्रत करें तो शत्रु नाश होय । कोई तन का फल ऐसा कह्या है जो याके किए वैरी वश
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