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होय, तब लौ छद्मस्थ दशा में हैं। तैते इनकौं आहार देना. सो ये उत्कष्ट के उत्कट पान धारी यतीश्वर, सो । उत्कृष्ट के मध्यम पात्र हैं। अष्टविंशति मलाणा, रह प्रकार चारित्र का प्रतिपालक, वीतराग सम्यक्त्व सूर्य || के धारी यतीश्वर, सो उत्कृष्ट पात्र के जघन्य पात्र हैं। ए तीन भेद उत्कृष्ट पात्र के कहै। इति उत्कृष्ट । पात्र भेद तीन । आगे मध्यम पात्र के तीन भैद कहिए हैं। तहां ग्यारहवों दशवी प्रतिमा का धारी त्यागी श्रावक सो मध्यम सुपात्र का उत्कृष्ट भैद है। पञ्चमी, छठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमो प्रतिमा के धारी श्रावक सो मध्यम सूपात्र के मध्यम पात्र हैं। प्रथम तें लगाय चौथी प्रतिमा पर्यन्त सम्यग्दृष्टि श्रावक सो मध्यम सुपात्र के जघन्य पात्र जानना । ये मध्यम पात्र के तीन भेद कहे। इति मध्यम सूपात्र भेद तीन । बागे सुपात्र जघन्य पात्र के तीन भेद कहिए हैं। तहाँ क्षायिक सम्यक्त्व सहित अव्रत गृहस्थ सो जघन्य सुपात्र का उत्कृष्ट पात्र है। उपशम सम्यग्दृष्टि का धारी व्रत रहित असंयमी गृहस्थ सो जघन्य सूघात्र का मध्यम पात्र भेद है। क्षयोपशम सम्यक्त्व सहित अवती गृहस्थ सौ जघन्य सुपात्र का जघन्य भेद है। ए तीन भेद जघन्य सुपात्र के हैं। ऐसे नव भेद सुपात्र कहे। आगे कहे जो ऊपरि तीन भेद अपात्र के तिनक उत्कृष्ट पात्र जानि विनय-भक्ति करि गुरु जानि दान देना तो अपात्र दान है। याका फल ऐसा है । जैसे—जल के स्थान के मेवे के पेड़, गुलाब के पेड़ विष जल और डारिश तो उस पेड़ का नाश फल व शोभा का नाश और जल डारचा सो वृथा गया, क्योंकि आगे धरती जलते पूर्ण थी ही तामैं और जल डारचा सो पेड़ गलि गया। सर्व करी मिहनत वृथा गई। ऐसा ही अपात्र-दान है। दिया धन नाश, फल नाश, सुख नाश । ताकै योगत निगोद नरकादिक दुख प्रगट फल होय है । तातै अपात्र का दान हेय है। कुपात्रकं गुरु जानि भक्ति सहित दान का फल कुभोग भूमि का मनुष्य होय । इहां प्रभ—'जो कुपात्र दान का फल हीन कह्या सो हलकौं सुपात्र का भेद कैसे मिले ? देनेवाला तो बाह्य चारित्र की तथा मूल गुणन की शुद्धता देखि दान दिया चाहै 1 लारनौं हजारौं मुनियों में सम्यक्त्व धारी यतिनाथ तौ थोरे अरु सम्यक्त्तव रहित शुद्ध मूल गुण धारी गुरु बहुत सो दैनेवारा शुद्ध मूलगुण देखि पीछे ऐसा विचार जो रा कुपात्र हैं वा सुपात्र है? तौ अविनय होय पाप लागे । ताते के वली के जानने योग्य बात श्रावक कैसे जानें ? सुपात्र-कुपात्र की बात तो
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