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शिक्षावृत है |२| आगे अपने पुण्य प्रमाणमैं तें घटाय भोग-उपभोग का राखना, सो भोगोपभोग परिमाण शिक्षावृत है । ३ । जहां अपने निमित्त किया भोजन तामैं तैं मुनि त्यागी श्रावकादिककूं दान का देना सो अतिथिकरण शिक्षावृत है । ४ । ए च्यारि शिक्षावत आगे तीन गुणवत के नाम --- दिग्वत, देशदूत और अनर्थदण्ड का त्याग । अब इनका सामान्य अर्थ -- जहां दशों दिशा विषै पापारम्भ निमित्त गमनागमन का सो दिखत है । २ । दिग्यूत मैं तैं घटाय रोज व्रत नियम करना सी देशयत है । २ । जहां बिना प्रयोजन पापारम्भ का त्याग सो अनर्थदण्ड का त्याग सो अनर्थदण्ड गुणव्रत है । ३ । ऐसे पचासुक्त, च्यारि शिक्षावृत, तीन गुणवूत सर्व मिलि बारह व्रत हैं सो ए त पाप नाशक पुण्य वृद्धि करनहारे सुबूत जानना । इन वूतन के किये तें जग यश होय पाप नाश होय । समता भाव होय बुद्धि उज्ज्वल होय दयामयी भाव होंय कु-बुद्धि का नाश होय, सु-बुद्धि का प्रकाश होय। ऐसे अनेक पाप-दुरुनिटिया गुरु प्रगत होष है। जैसे पुरुषकूं तीव्र क्षुधा लागी तब वह बिना भोजन शिथिल होय नेत्रन आगे तमारे आवें, चल्या नाहीं जाय । भागा नहीं जाय । बुद्धि मैं युक्ति नाहीं उपजै । पुरुषार्थ जाता रहै। दोन होय, पराधीन होय इत्यादिक अनेक रोग व दुख प्रगट होंय और जब पेट भर भोजन मिलै तब सर्व रोग-दुख एक समयमैं जाता रहे हैं। तैसे हो विवेको कौं भला ज्ञान होतें सुव्रत रूपी भोजन मिलतें ही कु-भावरूपी अनेक दुख-खोटे व्रतरूपी जो वेदना थो सो सर्व नाशकं प्राप्त भई । तब अनेक शुभदायक भाव होय हैं अनेक युक्ति उपजने लगी ताकरि तत्वन का भेदाभेद विचारि अपना कल्याण करें हैं। ऐसा जानि विवेकीनको अनेक विधि विचारि करि सुख का लोभी धर्म का इच्छुक अनेक मतन का रहस्य देखि जहाँ शुभ दया भावनकू लिये उज्ज्वल आचार सहित व्रत होंय सो करना योग्य है। जा व्रत के किरा तैं पापनाश होय सो व्रत उत्तम है और जिस व्रत के किए पाप उपजै सो हैय करना योग्य है। विवेकी जोवनकू अपने विवेक तैं भले-बुरे व्रत की परीक्षा कर लेनी । कोई कहे हमारा वूत भला है। तो काहू के कहे तैं ही नहीं लेना। अपनीअपनी सब ही भलो कहैं हैं यह जगत् की रीति ही है। परन्तु विवेकी परीक्षा करि जो अङ्गीकार करै सो वत पक्का है। जैसे—गुदरी मैं अनेक प्रकार रतनादि बिके हैं। तहाँ केई तौ सांचे रतन लिए खड़े हैं। केई झूठे रतन लिए खड़े हैं सो ग्राहक कू सर्व अपना-अपना रतन सांचा ही कहे हैं। सौ बेचनेवाला तो कहे हो कहै। परन्तु
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