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समाधान भी भव्य ! जैसे -कोई मनुष्य शीतांग में डूबि रहा होय ताक कोई ओषधि लगता नाहीं जानि मला वंद्य होय सी तिस रोगीक ज्वर को आताप बढ़ावे का उपाय करे। सो रीसा विचारै जो या रोगी का आयु-कर्म । है अरु रोग जानेवाला है तौ उवर बढ़ेगा। मरन होना है तो शीतांग मिटैगा नाहों मेरी ओषधि वृथा जायगी। । २१५ तैसे यह संसारी जीव अनादि मिथ्यात शीतांग मैं डूनि रह्या है। सो कोई उपाय नाहीं। तातें हमने दुरगच्छाररूपी ज्वर की आताप बढ़ावे की यह उपाय किया है। सो हे भव्य ! जो तेरे तन” अनादि एकता के मोह तें अपनपा मानि शरीर मैं मगनता भई ताके पोषवेक तं अनेक मिध्यात्त्व कार्य करें है। अरु जब तेरे शरीरतें मोह बुद्धि टूटि या सप्तधातुमयी फासै तौ चेतन भाव तै प्रोति आवै सम्यक होय। तात हमने शरीरनै दुरगंच्छा उपजावेत अशुचि भावना का कथन किया है। सो जब शरीर से दुरगंच्छा होय तौ हमारा उपाय सिद्ध होय । तनर्ते भिन्न जानतें अनादि मिथ्यात्व शोतांग मिटै मोक्ष होवे की आशा बढ़े। तातै श कथन जानना। रोसा तेरे प्रश्न का उत्तर है। तात अशुचि भावना का चिन्तन है और जीव राग-द्वेष भाव करि मिथ्यात्त्व अविरत योग कषाय इनके निमित्तकौं पाप-कर्म आस्रव कर है। सो रोसे विचार का करना, सो जासवानुचिन्तन है। जहां आसव भाव रोकिरा, सो सम्वर है। सो मिथ्यात्व आस्रव रोककै तौ सम्यक होय। अव्रत-भाव रोकके व्रत-भाव होय और योगिन की अशुभता मेटि शुभता होय कषाय मेटि वीतराग भाव होय। ऐसे करि मोह मन्द करि राग-द्वेष भाव निवारना भासत्र रोकि संवर करना, सो संवरानुचिन्तन है और विशुद्ध भावना करि सत्ता कर्मन • खेरि असाव रुप करना, सो निर्जरा है। सो निर्जरा के दोय भेद हैं। एक सविपाक एक अविपाक । तहां अपनी पूरण तिथि करि कर्म का खिरना सो सविपाक मिर्जरा है। जो तप संयम के योग से यथा परिणामन की विशुद्धतातें कर्म का खिरना, सो अविपाक निर्जरा है। ऐसे विचार का नाम निर्जरानुचिन्तन है। जहां तीन लोक-संस्थान जो आकार ताका विचार भेद-भाव करना, सो लोकानुचिन्तन है। जीवाजीव जादि वस्तु अपने स्वभाव कू न त स्वभाव रूप रहै परभावलप नहीं होय सो ऐसे विचार का नाम धर्मानुचिन्तन कहिरा । अपने स्वभाव में रहना सो तौ सुलभ है पर-स्वभावरूप होय सो दुर्लभ में । जैसे-जीव कू चैतन्य भाव रहना ज्ञानमयी रहना, धर्म भावना होना इत्यादिक जीव के गुणमयो जीवकू रहना सो सुलभ है। इन
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