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और पाठ मव मनुष्य के ए चौबीस पंचेन्द्रिय के। सर्व मिलि छयासठि हजार तीन सौ छत्तीस जन्म-मरण षटकायिक जीवन के होय हैं। सो सर्व जीवन मैं मनुष्य राशि अल्प है। क्षेत्र विर्षे देव नारकीन का क्षेत्र असंख्यात योजन का है और तिर्यश्च का एकेन्द्रिय अपेक्षा सर्व लोक त्रस अपेक्षा भी असंख्यात थोजन क्षेत्र है। सर्व ते अल्प क्षेत्र मनुष्य का है सो पैंतालीस लाख योजन प्रमाण है। काल अपेक्षा भी देव नारकीन का आयुकाल तो असंख्यात वर्ष प्रमाण है। मनुष्य का काल थोरा है। या मैं जीवन अल्प है। भाव अपेक्षा देव, नारकी, पशु उपजने के भाव बहुत हैं। अल्प से पुण्यरूप भाव होते देव होय है और अल्प से पापन ते नरक के दुख का भोगता होय है आर आर्त-भाव ते तिर्यच होय है। सो आरति जीवक सदैव ही लगी रहै है। परन्तु मनुष्य होवे के भाव महाकठिन हैं। कोई दीर्घ पुण्य भाव नाहीं पाप भाव कोई नाहीं। मध्य भाव सरल भाव मन्द कषाय भाव व्रत सम्यक रहित भोरे सरल कोमल भाव रोसे महाकहिन भाव ते मनुष्य हो । सो ऐसे मनुष्य होने के भाव थोरे काल करि मनुष्य थोरा काल जीवे । क्षेत्र करि मनुष्य का क्षेत्र थोरा है। भाव भी मनुष्य होने के थोरे है। सो द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव करि मनुष्य थोरे हैं। याका निमित्त मिलना कठिन है। तात रोसी मनुष्य पर्याय द्रव्य में झेय-हेय-उपादेय करना योग्य है। इति द्रव्यमैं ज्ञेय-हेय-उपादेय कथन। आगे क्षेत्रमैं शेय-हेय-उपादेय कहिये है। तहां शुभाशुभ क्षेत्र का जानना सो तो झेय है। ताके दोय भेद हैं एक हेय एक उपादेय। सो जिस क्षेत्र में चोर रहते होय, हिंसाधारी मद्यपायी रहते होय, सो क्षेत्र तजवे योग्य है। जहां महाक्रोधी, मानी, मायावी, महालोभी रहते होंय सो क्षेत्र हेय है। जहाँ धर्म रहित, दुराचारी, पापी जोव रहते होय, सो क्षेत्र तजवे योग्य है। जहां कामी-जीवन की क्रीड़ा का अप्रच्छन स्थान होय, सो क्षेत्र तजवे योग्य है। जहां मोड़, बालक निर्लज पुरुष कौतुक करते होय इत्यादिक नेत्र जहां आपकौं पाप लाग, निन्दा आवै, सो क्षेत्र तजवे योग्य है। जहाँ धर्मात्मा तिष्ठते हॉय, धर्म-चर्चा होतो होय तथा जिन-मन्दिर होय तथा वन, मसान, गुफा विर्षे वीतरागी मुनि विराजते होय सो क्षेत्र, तीर्थ समान उपादेय है। इत्यादिक शुभ क्षेत्र, व्यवहार नय करि उपादेय हैं और निश्चय नयत पर-द्रव्य क्षेत्र हेय हैं । अरु स्वद्रव्य क्षेत्र जो असंख्यात प्रदेशरूप, आत्माकार, ज्ञानमयी, अमतिक, पुरुषाकार आत्मा करि रोक्या जो तेत्र, सो उपादेय है। इति क्षेत्र विर्षे शेय-हेय-उपादेय। आगे काल में ज्ञेय-हेय-उपादेय बताइये है।
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