________________
तजि रात्रि-भोजन सहित तय, रा कु-तय हैं, सो हेय हैं कु-देवन के साधनक कु-तप सो हेय हैं तथा पुत्र, धन, स्त्री इन आदिक अभिलाषा सहित तथा शत्रु के नाश के अर्थ तय ये कु-तय हैं हेय हैं जोवतही अग्नि में प्रवेश । करि जल मरण तप अन्न तजि वनस्पति फल, फूल, पत्ता, दूध, दही, मठा'इत्यादि का भक्षण तप इन्द्रिय का छेदन करि तामैं लोह की कड़ी-सांकल नाथना तप नोचा शिर ऊर्च पांव करि तपना शोश पै अग्नि धारण तप, शीशपै तथा हस्त शिला धारण तप, र सर्व कु-तप हैं शस्त्रधारा त मरना जलधारा में प्रवेश करि मरण तप तथा चाम टाट घास रोम के वस्त्र रख राक्षस तप करना इत्यादिक र सर्व कु-तप हेय हैं। । इति कु-तप । आगे सु-तप कहैं हैं। जिस तप के करते स्वर्ग-मोक्ष होय, सो शुभ तप है। ताके बारह भेद | हैं। तिनमैं षट् बाह्य व षट अभ्यन्तर के हैं। सो तहां अनशन, अबमोदर्य, व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग, | विविक्तशय्यासन, कायक्लेश-र पट बाह्य तप हैं और प्रायश्चित्त, विनय, वेयानन, स्वाध्याय, व्युतसर्ग और ध्यान- पटना पह। अब सबर्बान का सामान्य अर्थ कहिये है-तहां वर्ष षट् मास, चौमास. पक्ष, पञ्च दिन,दो दिन, एक दिन इत्यादिक उपवास करना, सो अनशन-तप है।श भखत प्राधा चौथाई तथा कछु घाटि खाना, सो अवमोदर्थ-तप है। २। रोज के रोज षटरसन मैं तें कोई राक-दो, च्यारि रसन का त्याग, सो रसपरित्याग-तप है ।३। जो रोजि के रोजि खान-पान का प्रमाण तथा और मोग-उपभोग योग्य जे सर्व वस्तु तिनका प्रमाण करना, सो वन-परिसंख्यान-नाम-तय है। ४। और जहां तिष्ठे, तहां स्थान की शुद्धता करि तिष्ठं शून्यएकान्त ऐसे स्थान को देखें जहां संयम की विराधना न हो, सो विविक्त-शय्यासन-तप है । ५। अन्तरङ्गको विशुद्धता बढ़वेकं बाह्य तनकौं जैसे कष्ट होय सी ही निमित्त मिलावना, सो कायक्लेश-तय है ।६। र षट् तपकौं । बाह्य कहैं। इनकं करें तब औरकौं जान्या परै जो याके तप है तातें बाह्य तप कहिये और जहां अपने तप-चारित्रकू तथा षट् आवश्यककौं तथा मूलगुणन इत्यादिक अपने मुनि-धर्म कौ कोई अतीचार लागा जान । तो गुरु के पास
अपने अन्तरङ्ग का दोष जाकू और कोई नहीं जानें ऐसा छिपा दोष ताकौं धर्म का लोभी गुरुन प्रकाशै। पीछे २०७। गुरु का दिया दण्ड लेय लगे दोषको शुद्ध करै, सो प्रायश्चित्त-तप है। ता प्रायश्चित्त के दश भैद हैं, सो कहिये
हैं। आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, धुतसर्ग,तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान-ए दश भेद हैं । अब