________________
श्री
F
सु
ष्टि
२११
कोई श्रावक का पुत्र रतन, स्त्री, सुवर्णादिक हरे होंय तथा कोई मुनि श्रावक का चेतन-अचेतन परिग्रह हरया | होय तथा याक आदि और अन्याय कार्य, मुनि-धर्म का भअक- असंघम सेवन करचा होय, तिस मुनिको । ऊपरि कहे दण्ड होय है। ऐसे दण्ड कौन-सी शक्ति वारं कूं हाय, सो कहिये हैं । जे मुनि महाज्ञानी, दस पूर्व के पाठी होय, हीन ज्ञानीन तैं दीर्घ दण्ड की सामर्थ्य नाहीं । जैसे—बहुत कटुक भेषज स्थानै पुरुष हो पीवैं और बालक ज्ञान नहीं पाई जाय, यह कड़वी औषधि के गुण नाहीं जानें। तैसे अज्ञानी शिष्य, गुरु के दिये तैं दीर्घ काम ना जानें। तातें महान् ज्ञानोकौं होय है। वज्र-वृषभ-नाराच संहनन आदि तीन संहनन का धारी होय, हीन-शक्तिकों नाहीं होय, दीर्घ शक्तिमानक होय। क्योंकि जो आचार्य महादयालु, जगत्-त्रल्लभ सर्व के मात-पिता, सर्व के हित वांधिक हैं। सो जैसे— शिष्य का भला होता जानें, सो ही प्रायश्चित्त देय। कोई शिष्य द्वेष भाव नाहीं । अपनी मान-बड़ाई नाहीं । जैसे- शिष्यन का पाप क्षय होय, निरतिचार संयम तैं स्वर्गमोहोय, सो ही करें हैं। जैसे—कोई परोपकारी वैद्य, अनेक रोगोनकों कोई कारण खान-पान मनें करें है, काहू कूं लंघन करावे है, काहू कूं कटुक भेषण देय है। सो रोगीन तैं द्वेष नाहीं, उनके सुख हेतु बतावें है। तैसे आचार्यन का दण्ड जानना । वह धर्मात्मा शिष्य गुरु का दिया दण्ड महाविनय तैं आदर करि लेय, सो निजगण-स्थापन प्रायश्चित है। पर-गण-स्थापन ताक होय, जो आचार्य का दिया दण्ड महामद सहित अङ्गीकार करें। ताक आचार्य संघ तैं काढ़ि दें। जैसे— लौकिक मांहि जो कोई राजा का आज्ञा नहीं मानें, तौ राजा ताक अपने देश नगर तैं निकासे तैसे आज्ञा प्रतिकूल शिष्य कूं संघ निकासि देंख तथा मानी शिष्यकं और संघमैं खिदाय, शुद्ध करें। जैसे- लौकिक मैं अपना पुत्र घर की दुकान सोखे नाहीं तो ताक पर की दूकानपै राखि, गुणवान करि शुद्ध करें। तैसे हो शिष्य का भला जैसे होता जाने, तैसे हो भला करें। ए पर गए स्थापन प्रायश्चित्त कहिये तथा कोई शिष्य गुरुपै मद सहित प्रायश्चित्त याचे, तौ आचार्य शिष्यक मद सहित प्रायश्चित्त याचता देखि, ऐसा कहैं। तुम फलाने आचार्य पै जावो वह तुमकों प्रायश्चित्त देंगे। तब शिष्य गुरु की आज्ञा पाय और आचार्य के पास जाय प्रायश्चित्त याचै। तब वह आचार्य शिष्यक मद दोष सहित जानि ऐसी कहैं तुम अपने ही गुरु पै याचो । तब शिष्य अनादर जानि पोछा अपने गुरु में आवै । प्रायश्चित्त याचै। तब गुरु और
२११
त
रं
गि
णी