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धर्मात्मा जीवन के जिन पावन तैं सिद्ध क्षेत्रादिक यात्रा करिर सो पद पार का फल है, सो पद आभूषण है।४। आगे मुकुट, तुररा.शिरपंचादि इनत शिर को शोभा होय, सो शिर आभूषण कर्म सम्बन्धी हैं। जा शिरतें देवगुरु-धर्मकं नमस्कार कीजिये, सो सिर सफल है। धर्मो-जीवन के ये शिर आभूषण।५। और कर्म अपेक्षा मुखमण्डल के तिलकादि आभूषण हैं तथा ताम्बूलादिक पान का खावनादिक सर्व मुख के आभूषण हैं । इनसे मुख भला शोमैं है, धर्मात्मा जीवनकजा मुखत सर्व हितकारी मिष्ट हित-मित वचन का बोलना सो मुख आभूषस है तथा अन्य जीवन के रक्षक दयामयो वचन जा मुख त बोलना तथा सम्यक प्रकार सत्य मन वचन की एकता सहित जिस मुखत पच परमेष्ठी की स्तुति करना तथा जा मुखः इन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण, कामदेवादि महान पुरुषन की कथा करिश सो मुख का श्रृङ्गार है तथा मूनि गराधरन के वचन सुनिक पोचे अपने मुखते वही वचन औरन 4 प्रकाशित करना सो मुख सफल है तथा यथायोग्य विनयकारी करना पर के श्रवरानक हितकारी वचन जा मुखतें बोलना सोही धर्मकारी जीवनकै मुख आमूषण है। ६ । कर्म अपेक्षा नेत्र-अञ्जन जारि नेन भले लागै सो अअनादि नेत्र के आभूषण हैं। धर्मात्मा जीवन के जिन नेत्रनतें जिनदेव का दर्शन करिके हर्ष मानिए सो हो नेत्र आभूषण हैं तथा जिन नेत्रनतें अनेक जिन शासन के शास्त्रनकों परमार्थ-दृष्टि करि देखिये, सो नेत्र सफल हैं तथा पर-वस्तु जै सुन्दर स्त्री, देवांगनादिक का रूप जे परम पदार्थ तिनकं निर्विकार करता रहित होय देखना सो नेत्रनकौ आभषण हैं। तिन करि नेत्र सफल हैं । ७। कर्म अपेक्षा कर्ण मण्डन जो कुण्डलादिक जिनतें कान भलै शोमैं सो कर्ण आभूषण हैं और धर्मात्मा जीवनकै जिन काननते जिन-गुण श्रवरा करना तथा तीर्थङ्कर, केवली, गणधरादिक महामुनीन के गुण श्रवण करना तथा जिन भाषित दयामयी धर्म का जिन काननते सुनना सो कान कं आभूषण हैं। कान पाए का फल है। ८1 और कर्म सम्बन्धी तन-मण्डन वस्त्रादि अनेक तन जाभूषण हैं। इनत तन मला शोमें है और धर्म सम्बन्धी जा तनर्ते महाव्रत-अणुव्रत पालना पञ्च समिति, तीनि गुप्ति र गुण रतन करि तन शोभायमान करना सो तन पार की शोभा है तथा जा तनत कोई जीवनकं नहीं पीड़ना अन्य की रक्षा करनी तन का भयानीक आकार बनाय भोरे जीवनकं भय नहीं उपजावना जा शरीर से शभाचार करि शान्ति मुद्रा सहित रहना अपनी मूर्ती देखि औरको विश्वास उपजावना सो हो तन आभूषस है।