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और संघ में आचार्य के पास होय और शिष्य को क्यावना हो तो गुरु की जाता था। अपनी इच्छा नहीं करें, सो आन मन्त्र समाचार कहिये है | १| आगे संश्रय। सो संश्रय के पांच भेद हैं। सो कहिये - विनय-संश्रय, क्षेत्र-संश्रय, मार्ग-संश्रय, सूत्र-संश्रय और सुख-दुख -संश्रय- ऐसे ये पश्च भेद हैं। अब इनका सामान्य अर्थ कहिये हैं। तहां कोई मुनीश्वर अन्य देशान्तर तैं आयें तो जिस संघ में आये तिस संघ के यति आचार्य महाहर्ष सहित प्रमाद रहित होय आये मुनि के सत्कार को ताजीम ( स्वागत ) देय ताके अर्थ सात पैंड़ सन्मुख जाय यथायोग्य नमस्कार करें। पीछे आये मुनि के मार्ग खेद निवारण कूं यथायोग्य तिष्ठवैकौं स्थान देवें। पीछे मुनि के चारित्र को कुशल पूछें। या कहें है प्रभो । तिहारे रतनत्रय कुशल हैं ? याका भावार्थ - यह जो तुम्हारे मोक्ष-मार्ग निरतिचार रह्या ऐसे आये मुनिकों महा विनय सहित वचन कहि अपना धर्मानुराग प्रगट करते मनवचन - काय की क्रिया करि तिनकूं साता उपजावैं, सो विनय-संश्रय इति विनय-संश्रय कहिये । २ । आगे क्षेत्रसंश्रय । तहां जिस क्षेत्र का राजा पापी होय, अन्याई होय, अनाचारी होय तिस क्षेत्रमै यति नहीं रहें तथा जिस देश का कोऊ रक्षक नहीं होय राजा रहित क्षेत्र होय तो उस देशमैं मुनि नहीं रहैं और जिस देश -नगर जीवहिंसा विशेष होय, तहां यति नहीं रहें तथा जिस देशमैं पापी निर्दयी जीवन की बधवारी ( बढ़वारी ) की प्रवृत्ति होय । जहाँ धर्म रहित विपरीत जीवन का अधिकार होय ऐसे क्षेत्रमै यतीश्वर नहीं रहें तथा जो देश दीक्षा योग्य नहीं होय तथा जहां के जीव महाकसाई होंय, भोग-रत होंय, अनाचारी शुभ आचार रहित होंय, दोना योग्य नहीं हॉय, तिस क्षेत्र विषै जगत् गुरु नहीं रहें और जिस देश में अकाल पड़ गया होय, अन्न की वेदना करि अनेक
दुखिया हो रहे होय इत्यादिक उपद्रव सहित क्षेत्र मैं मुनि का धर्म सधै नाहीं । तातैं दया भण्डार संयम का लोभी ऐसे क्षेत्रन मैं नहीं रहे। अरु कदाचित् रहे तो संयम नष्ट होय । तातैं ऐसे कहे कुत्तेत्रन में योगीश्वर नहीं रहें और कैसे क्षेत्रन मैं रहें, सो कहिये हैं। जहां कोई जाति का उपद्रव नहीं होय जिस क्षेत्र का राजा धर्मो होय, देश की प्रजा धर्मात्मा होय. दयावान होय, दीक्षा योग्य जोव होंय, संयमी जीवन की प्रवृत्ति शुभाचारी होंय इत्यादिक शुभ क्षेत्र का विचार करि अपने संयम की रक्षा योग्य क्षेत्र मैं रहें। सो क्षेत्र-संश्रय कहिए । इति क्षेत्रसंश्रय । २ । आगे मार्ग संश्रय कहिये है— जहां कोऊ मुनि देशान्तर तीर्थ विहार करतें बहुत दिनतें मिले होंय
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