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रा शुभाशुभ देखि इनमें राग-द्वेष नहीं करना तथा उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी तथा प्रथम, दूजा, तीजा. चौथा, ! पंचमा, छठा काल इन सब कालन की प्रवृत्ति विर्षे शुभाशुभ नाहीं होना राग-द्वेष नाहीं करना सो कालसापाविक है। सामायिक करते जोव-अजीवादि तत्वन मैं तौ उपयोग की प्रवृत्ति शरीर की एकाग्रतानिश्चलता और मिथ्यात्व प्रमाद के अभावते शुद्ध समता रस भोजते भाव और सामायिक करते वचन, मन, काय इनकी एकता सहित सामायिक ही विष भावन की प्रवृत्ति, सर्व जीवन” स्नेह-भाव सर्व की रक्षान्माव वा संथम को बढ़वारो रुप परिणाम धर्म शक्तध्यानमयो भाव चेष्टा सो माव-सामायिक है । सो इन षट् भद । रूप सामायिक का धरनहारा शुद्ध भावन सहित जगत गुरु मुनीश्वर षट काय का पीर हर सो सदैव सर्वकाल सर्व संयम का धारी गुरु के सामायिक आवश्यक है।श यतीश्वरकै अरहन्त-सिद्धि की बारम्बार स्तुति सो स्तवन आवश्यक है। 21 अरहन्त सिद्ध की बारम्बार नमस्कार रूप मन-वचन-काय सो वन्दना आवश्यक है।३। कोई प्रमादवशाय संयमकों दोष लागा होय तो ताकी यादि करि ताके दूर करवेकों क्रिया करनी सो प्रतिक्रमण आवश्यक है। है। और पाप क्रिया का त्याग सो प्रत्याख्यान आवश्यक है। ५। और तहां शरीर तें मोह रहित होय प्रवर्तना ध्यान रूप होना, तन त्याग रूप उदास भावना कायोत्सर्ग आसन करि तिष्ठना सो कायोत्सर्ग जावश्यक है। ऐसे महावत, समिति पंचेन्द्रिय वशीमत करण षट आवश्यक, सात खेरीज गुण ऐसे अष्टाविंशति मूल गुण की रक्षा रूप सदैव प्रवर्तना, गुरु बन्दने योग्य है। इति श्री सुदृष्टितरङ्गिणीनामग्रन्थमध्ये अशाईस मूल गुणन में एषणा-समिति में छयालीस दोष, बत्तीस अन्तराय, चौदह
मल-दोष-रहित शुद्ध एषणा-समिति सहित गुण वर्णनो नाम अष्टमपर्ष सम्पूर्णम् ॥८॥ आगे भी मुनि-धर्म की प्रवृत्ति है । तरो तेरह प्रकार चारित्र-उत्तम-धर्म सो पंच महाव्रत पंच समिति इनका स्वरूप तौ ऊपरि कहि आए हैं। तीन मुनि तिनका स्वरूप कहिए है। जहां मन का चिन्तवन होय, सो जिनआज्ञा अनुसार होय। सर्व जीवन सुखरूप प्रमाद रहित मन का विचार अपने अभिप्राय बिना और रूप नहीं होय, सो मन वशी जानना । याही का नाम मन-गुप्ति है 1 जहां वचन का बोलना सो स्वपर-हितकारी जिन-प्राज्ञा समानि बोलना आत्मा के अभिप्राय बिना प्रमाद वचन नहीं बोलना सो प्रमाद रहित सत्य जिन-आज्ञा अनुसार
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