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याका नाम सदंश-दृष्ट- अन्तराय है । २४ । भोजन पहले सिद्ध भक्ति के पश्चात् करतें भूमि स्पशैं तौ अन्तराय है, का नाम भूमि- स्पर्श - अन्तराय है । २५ । भोजन करतं मुनीश्वर स्वतः कफादिक का निष्ठीवन करें, तो भोजन तजें, याका नाम निष्ठीवन अन्तराय है । २६ । भोजन समय मुनि अपने उदरतें कृमि खिरी जानें. तौ अन्तराय करें, याका नाम कृमि गमन- अन्तराय है । २७ । भोजन समय दाता के बिना ही दिए प्रमाद योगतें कोई भोजन यति अङ्गीकार करें, तो भोजन तजैं, याका नाम प्रदत्त - ग्रहण - दोष है सो अन्तराय है। २८ । खड़गादित ककरते साधु का कोई घात करै वा अन्य का घात करें, तो अन्तराय होय, याका नाम शस्त्रप्रहार अन्तराय है । २६ । भोजन समय मुनिनाथ ने नगरमैं जाते, नगर में अग्नि लागी देखी तो भोजन तजैं,
का नाम ग्रामदाह - अन्तराय है । ३० । भोजनकों नगरमैं जाते कोई पड़ी वस्तु पावतें ग्रहण करें तो भोजन त, याका नाम पादग्रहण- अन्तराय है । ३१ । भोजनकों नगर मैं प्रमाद वशाय कोई राह पड़ी वस्तु हायते छोंवें तौ भोजन तजैं, बाका नाम कर ग्रहण- अन्तराय है । इस ऐसे जगत् का गुरु शरीरतें मोह का तजनहारा, संसारीक सुख उदास इन्द्रिय जनित आनन्द निस्पृह र बत्तीस अन्तराय भोजन समय टालें, तब शुद्ध भोजन होय है। चौदह मल-दोष और टालेँ, तिनके नाम कहिए है--नख, रोम, मृतक जीव, हाड़ गेहूँ जब अभ्यन्तर अवयव, पक्व, रुधिर, तिलादिक के सूक्ष्म अवयव, चाम, रुधिर, आमिष, ऊँगने योग्य बोज, फल, जाति, आदादि, कन्द ( अदरक आदि ) मूलादि मूल ऐसे चौदह मल-दोष हैं सो मुनि के भोजन मैं आवें तौ तथा केईक देखें तो वे भोजन तजैं। ऐसे छचालीस दोष बत्तीस अन्तराय और चौदह मलदोष टालें । तब वीतरागी गुरु का शुद्ध भोजन होय है । याका नाम तीसरी राबणा-समिति है । ३ | आदान तौ नाम लेने का है, अरु निक्षेपण नाम घरवै का है। सो पुस्तक पीछी कमण्डलु शरोर इनकूं जहां धरै सो निर्जीव जगह देखि धरै । इनको उठावें तब जतन तें उठावें । सो आदान-निक्षेपण समिति है ।४। और यति तन के मल-मूत्र सो निर्जीव भूमि देखि नाखँ ( डालें ) सो प्रस्थानी ( व्युत्सर्ग) समिति है । ५ ए पांच समिति कहीं। आगे पंचेन्द्रिय वशीकरण कहे हैं। सो तहां स्पर्श के आठ विषय हैं। तिन आठ का निमित्त मिलें राग-द्वेष नहीं करै सो स्पर्शन इन्द्रिय विजयी साधु कहिए । २ । रसना इन्द्रिय के पांच विषय हैं। सो इन
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