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कहना सो वचन वशी जानना याही का नाम वचन गुप्ति है। जहाँ कायतै चालना सो समिति सहित चालना अपने
अनोपाङ्ग चश्चल करना सी जिन-आझा अनुसार करना महादया भावन सहित शान्ति मुद्रा कर रहना प्रशुभ भीतन की शुश्रूषा रूप नहीं रहना अपनी काय करि कोई प्रासी भय नहीं करे, सो मुद्रा बनाय तिष्ठकै रहै। आत्मा
| १३७ के अभिप्राय बिना कायक्रिया प्रमाद तें नहीं करना, सो काय का वशीकरना है। याही का नाम काय-गुप्ति है। ऐसे तैरह प्रकार चारित्र माना। इस चारित्र सहित जे मुनि होय सी गुरु सत्य जानना। ये हो गुरु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र इन नत्रय सहित हैं। सो सम्यग्दर्शन, सम्यकचारित्र का स्वरूप तौ ऊपरि कहि आए है । बरु सम्यग्ज्ञान का स्वरूप कहिए है । सो सम्यम्ञान पांच प्रकार का है। जिन-आज्ञा अनुसार स्वपर पदार्थन का स्वभाव जानना, सो सम्यमान है। इनका स्वरूप आगे कहेंगे, तहां तें जानना । ऐसे शुद्ध रतनत्रय का धारी योगीश्वर सम्यग्दृष्टिन का गुरु है पूजवे योग्य है। ये ही गुरु महाधीर कर्मशत्रु के जोतवैकू महासामन्त तन ममत्त्व के त्यागी जगत गुरु कम-शत्रुन के किरा महाघोर परीषह तिनके सहवेक साहसी हैं। ते परोषहन के भेद बाईस हैं। सोही कहिए हैंगाथा-छुद तिस सीतय उसणऊ, ईसा णगणाय भरतितीय चज्जाए । आसण सयण कुश्वर्ण, बघबंधा आपमालाभो ॥२४॥
गद तण कासय मल्लयो, सबकारो पुरुसकार पण्णाय 1 अण्णाणोय अदसणं, सधे वाबीस मुण सहधीरा ॥ २५॥
युग्मार्थ-क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नगन, अरति, स्त्री, चर्या, आसन, अयन, दुर्वचन, बधबन्धन याच नाही. अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, अदर्शन-ए बाईस उपद्रव हैं। अब इनका अर्थ कहिए है। तहां मुनीश्वर नाना उपवास के पारणे को भोजन समय नगर मैं जाँय जरु तहां अन्तराय होय, तो यति व्रत का लोभी, पीछा वनकुंजाय। क्षुधातें तन महाक्षीण होय परन्तु जगतगुरु, परिणति खेद रूप । नहीं करें। अन्न के सहाय बिना तनने अपनी सत्ता छोड़ दई, परन्तु यति ने अपना मन का पुरुषार्थ नहीं तजा, सो शिथिल भया शरीर ताकू अपने पुरुषत्व करि यथावत् उचित क्रिया चलावते भए । जैसे—कोई दीपान्तर का जानेहारा सेठजी कर्णरथ पे चदया गमन करे है, सो कहीं-कहीं पर्वतन की घाटी विकट पत्थरन सहित पावै। तहाँ रथकू जीर्ण जानि जतनतें साधि, दीपान्तर पहुँचे। तैसे यति मोक्ष द्वीप का चलनेहारा, तन रूपी रथ चढ़ि
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