________________
नहां हिलावै हैं। ऐसा विचार है जो मेरा तन चञ्चल भया तौ र होन शक्ति के धारी दोन जीव भय पावैगे तथा ।। दीन जीवन की घात होय तौ हिंसा का दोष उपजेगा, ऐसा जानि तिन दीन जीवन की रक्षा कधीर-वीर अपनी काय निश्चल करि बाधा सहता कायर भाव नहीं करें, सो दंशमशक परीषह विजयी साधु कहिए । जे गृहस्थ अवस्था मैं बाप चक्री, कामदेव मण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वरादि बड़े पदधारी राज-सम्पदा मैं, तन में अनेक श्रृङ्गार करते तनक भी शरीर उघड़ता तौ लखाको धरते अपने तन की शोभा आपही देखि-देखि देवन का रूप अल्प मानते महाभोगी शरीर के अङ्ग-उपाङ्ग उघाड़ते शंका करते सोही अब संसार की दशा विनाशोक जानि सर्व राज-सम्पदा चपला-सी चपल जानि तातै ममत्व छोड़ि नग्न अवस्था धारि निशक निर्विकार पद धरि जगत् शंकाकू छोड़ि नन पद धारते भए । सो नगन परीषह विजयी साधु काहिरा।६। और जे वीतरागी इन्द्रियनकों अनेक अनिष्ट सामग्री मिले भी चित्त अरति रूपी नहीं करें, सो अरति परीषह विजयी साधु कहिये। ७1 जो निर्विकार यति. देवाङ्गना, मनुष्यनी, तिर्यचनी, काष्ठ-पाषाण-चित्राम की सुन्दर पुत्तलिकायें र चेतन-अचेतन च्यारि प्रकार की स्त्रीन का निमित मिले राग-द्वेष नहीं करें। तहां कोई देवांगना तथा विद्याधरी आय यति अनेक हाव-भाव विनय मन्दहास्य नेत्रनतें सरागता बताय यतिको विकार उपजावे तो भी यह ज्ञान-सम्पदा का धारी समति रूपी सखी करि जान्या है मोक्ष स्त्री का स्वरूप अरु सुख तिन सो यती मोक्ष स्त्री अनुरागी इन च्यारि जाति स्त्रीन के शुभाशुभ देखि राग-द्वेष नहीं करें सो स्त्री परीषह विजयी साधु कहिये। ८। और राज अवस्था मैं जे स्थ, पालकी घोटकादि की सवारी करते पांवन कबहूं नहीं चलते सो अब वही सुकुमाल सत्संग के निमित्त पाय सर्व सम्पदा विनाशिक जानि सर्व बाहन को सवारी तजि नगन अवस्था धरि एकाएक वनविर्षे पगप्यादे फिरें हैं सो विहार करते कोमल पावन मैं कंटक तिनका पाषाण खण्ड कठिन धरती चुभती मई। ताकरि पावन में रुधिर धारा चलती भई। ताकरि भी यति समता रस का भस्मा धीर वीर साहसी संयम का | लोभी खेद नहीं लेता भया । सो चर्या परीषह विजयी साधु कहिये।। और मुनि गुफा मशान मण्डप वृक्ष के कोटर वनादिक मैं तिष्ठं आसन करें वहां आगे पीछे विचार जो यहाँ गुफादि में सिंहादिक जीवन के खोजि बिल मालम। होय है। तो इस स्थान में तो नाहीं रहे? यह स्थान आगे काहू जीव करि रोक्या गयो तो नाही? कदाचित
३९. वनादिम