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कर, सो अदर्शन परीषह विजयी साधु कहिए ।२२। ऐसे बाईस परोषह सहनेकौं धीर सो ही जगत् का गुरु है। सो ही गुरु सम्यग्दृष्टिन करि पूण्य है । सी हो गुरु जानना । सो ऐसे मुनीश्वरन के भेद दश है । सोही कहिएगाश-सूरोप वग्माम तपस्रो, सिसिंगलांणगण कुलय संजातो। साहू मगोगय दहदा, जोई भेयाण जिणसुते भासई ॥ २६ ॥
अर्थ-आचार्य, उपाध्याय, तपसी. शिक्ष्य, ग्लान, गरा, कुल, संघ, साधु, मनोज्ञ। ए मुनि जाति के दश भेद हैं। तहाँ प्रथम आचार्य का स्वरूप कहिये है। || गाथा—यहधम्मो तप बारह आकसि सड़ पण्णाचार तीए गुत्ती । इण छतीस गुण जुत्तो, सूरो जगपूज्ज होई मुणणाहो ॥ २७॥
अर्ध-धर्म दश भेद, बारह भेद तप, षट् भेद आवश्यक, पंचभेद आचार, गुप्ति भेद तीन-ऐसे ए सर्व छत्तीस गुण आचार्यजी के हैं। तहाँ प्रथम ही दशधर्म भेद कहिये हैगाथा-सार खमः हो, आज सोम पर सताको हाचो, बंभवजाय धम्म दह भेवो ॥ २८॥ !
अर्थ— उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तय, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य-ए दश प्रकार धर्म हैं। तहां प्रथम ही उत्तमक्षमा का लक्षण कहिए है। तहाँ आप समान पद के धारी जीवन का शुभाशुभ चारित्र देखि क्षमा करनी सो क्षमा है। आपके पदते हीन शशि के धारी तथा चौइन्द्रिय, तेन्द्रिय, बेन्द्रिय, एकेन्द्रिय आदि ए महा हीन शक्ति के धारो तिन समता भाव क्रोध नहीं करना सो उत्तम तमा है। इहां प्रश्न, जो पंचेन्द्रिय आदि आप समान पदधारी तौ कोपादि कषाय करें हैं सो इन त द्वेष-भाव नहीं करना सो तौ क्षमा जानिए है और एकेन्द्रिय जीवन पर्यन्त जीवन के तो कोई के कोप करने की शक्ति नाहीं इन क्षमा कैसे करें ? इनतें क्षमा करनी सो उत्तम क्षमा कैसे कहो, सो कहौ । ताका समाधान । भो भव्य ! तू चित्त देव सुनि । जो आप समान पदस्थधारी जीवन ते तो कोय का कारण, इनकी हिंसा का निमित्त तो अल्प समय पाय पर है। अरु एकेन्द्रिय विकलत्रय की हिंसा का निमित्त बारबार बहुत मिले है। ताही ते श्रावककै स्थावर हिंसा नहीं बचे है। इनकी हिंसा महाव्रती यति से बचे है। सो तू सुनि वनस्पति तोड़ना, तुड़ावना, खावना, मसलना, चालते खंदना, सुखावना, छोलना, छोलवाना, संधना इत्यादिक मिटै तब वनस्पति एकेन्द्रिय को हिंसा नहीं लागे और कच्चे जल का छीवना, ऊलातपावना, स्नान करना, धोवना, धुवावना, पीना और कौं घावना इत्यादि जल का कार्य छुटे. तब जल काय
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