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आगे जहां देव धर्म गुरु का विनय ऐसे कीजिए। ऐसे विनयतें देव की पूजा कीजै । विनयतें शास्त्रन का वांचना, सुनना, धरना, राखना, गुरुकों वन्दना करनी, पूजा करनी, सो विनयतें करनी। ऐसे विनय का कथन तथा अपना मत पर के मतन की क्रिया स्वभाव प्रवृत्ति आदि कथन होय सो दूसरा सूत्रांग कहिए या छत्तीस हजार पद हैं। २ । आगे जीवस्थान के एक मेदकों आदि एक-एक जीव समास बधावते ( बढ़ायते ) च्यारि सौ षट् स्थान आदि जीव के स्थान का कथन होय है। थाके बियालीस हजार पद हैं । ३ । आगे जहां द्रव्य क्षेत्र काल भाव करि सम ही सम का जामैं कथन होय । जैसे -- धर्म, अधर्म द्रव्य लोकाकाश सम हैं तथा सब सिद्ध राशि सम है । इत्यादिक तौ द्रव्य सम हैं क्षेत्रकरि प्रथम नारक का प्रथम पाथरे का प्रथम इन्द्रकविल पैंतालीस लाख योजन प्रमाण है और अढ़ाई द्वीप पैंतालिस लाख योजन है और प्रथम स्वर्ग का प्रथम इन्द्रक रुचिक नाम सो पैंतालीस लाख योजन है और मोक्ष शिला पैंतालीस लाख योजन है और सिद्धन के विराजिवे का सिद्धक्षेत्र पैंतालीस लाख योजन है। ये पंच पैताले हैं सो क्षेत्रसम हैं तथा जम्बूद्वीप सर्वार्थसिद्धि विमान सातमें नरक का इन्द्रक विल नन्दीश्वर द्वीप की वापिका ये चार एक लाख योजन क्षेत्र प्रमाण हैं। तातें क्षेत्र सम कहिये इत्यादिक क्षेत्र समान जानना। आगे समयतें समय सम है उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी दोऊ का दस-दस कोड़ाकोड़ी सागर काल है, तातें सम हैं। इत्यादिक काल सम के भेद हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन रा दोऊ भाव सम हैं। इत्यादिक भाव सम हैं। ऐसे सम हो सम का व्याख्यान जामैं होय सो समवायांग है । याके एक लाख चौंसठ हजार ( २६४००० ) पद हैं । ४ । आगे जहां गणधर देव ने प्रश्न किए भो भगवान् ! ये वस्तु अस्ति हैं अथवा नास्ति हैं ? अरु जीव एक है या अनेक हैं। जीव सादि है कि अनादि है ? इत्यादि साठ हजार प्रश्न किए। तहाँ उत्तर कि वस्तु द्रव्य की अपेक्षा सदैव अस्ति है, द्रव्य वस्तु का नाश कबहूं होता नाहीं और वस्तु पर्याय की अपेक्षा नास्ति है। जितनी पर्यायें उपजें हैं सो निश्चय करि नाश हो हैं सो जीव अनन्त है और नाम अपेक्षा तो एक है कि यह जोव द्रव्य है। जैसे—बहुत रतन की राशि है सो नय अपेक्षा तौ रतन राशि एक । अरु पर्याय गुण सत्ता की अपेक्षा रतन भिन्न-भिन्न अपनी कीमत लिए हैं। केई रतन उत्कृष्ट
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