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ष्टि
पांच का निमित्त मिलै तहाँ राग-द्वेष नहीं करें, सो रसना इन्द्रिय साधु कहिए । २ । घ्राण इन्द्रिय के विषय दोय हैं । तिनका निमित्त मिलें. रागो-द्वेषो नहीं होय, सो घ्राण इन्द्रिय विजयी साधु कहिरा ।३। चक्षु इन्द्रिय || के पंच विषय हैं। तिनका निमित्त मिले रागी-द्वेषी नहीं होय, सो चक्ष इन्द्रिय विजयी साधु कहिय।४। श्रौत्र इन्द्रिय के तीन विषय हैं। तिनका निमित्त मिले रागी-देषी नहीं होय, सो श्रोत्र इन्द्रिय वशीकरण (विजयी साधु) कहिर है । ऐसे पंच इन्द्रियन के विषय का निमित्त मिल रागी-द्वेषी नहीं होय, सो पंचेन्द्रिय विजयी साधु हैं । बहुरि आवश्यक षट् का स्वरूप कहिए है। सो प्रथम ही सामायिक आवश्यक कहिये है
गाथा—णाम समापण दबो खेत्ते कालेष भाव सम्मायो । एसड भेय मुणिन्दो, अह णिस धारणेय आवसियो।
ऐसे सामायिक के षट भेद हैं। नाम-सामायिक, स्थापना-सामायिक, द्रव्य-सामायिक, क्षेत्र-सामायिक, काल-सामायिक और भाव-सामायिक । अब इनका अर्थ सामान्य करि बताइश है। तहां इष्ट, पदार्थ, राग, रंग, गीत, नृत्य, रूप, रतन, कंचन, सपूत पुत्र, माई, माता-पिता, राजा इन आदिक वस्तु के नाम सुनि राग नहीं करना, सो नाम-सामायिक है तथा शत्रु, अविनयी, दुराचारी इत्यादि खोटे नाम सुनि द्वेष नहीं करना, सो नाम-सामायिक है तथा ऐसा विचारना कि जा में सामायिक करी हौं, इत्यादिक भावना, सो नामसामायिक है और मनुष्य, पशु तथा मिट्टो काष्ठ पाषाण के मनुष्य पशन के नाना प्रकार आकार देखि ऐसा नहीं विचारना कि र मला है ए मला नाही तथा बावड़ी, कूप, सरोवर, मन्दिर आदि देखि राग-द्वेष भलेबुरे नहों कल्पना, सो स्थापना-सामायिक है और चेतन-अचेतन द्रव्य-पदार्थ देखि राग-द्वेष नहीं करें तथा कोई भव्यात्मा द्रव्य सामाधिक के सर्व पाठ जाननेवाला सन्ध्या समय सामायिक करवे को पद्मासन तथा कायोत्सर्ग तन की मुद्रा किरा तिष्ठे है । ताका चित्त वशीभूत नाही, सो अनेक जगह भ्रमस कर है। अरु पाठ शुद्ध पढ़ता तिष्ठे है सो जीव तथा शरीर सामायिक रूप है, ताक् द्रव्य-सामायिक कहिये और स्वर्ग, नरक, पाताल, मध्यलोक के अनेक द्वोप-समुद्र. पढ़ाई की. तिडते आर्य-प्लेच्छ क्षेत्र, वन, बाग, पर्वत इत्यादिक जो सुख-दुख रूप शुभाशुभ देश, ग्राम, क्षेत्र तिनमैं राग-द्वेष नहीं करना सो क्षेत्र-सामायिक है।। वसन्तादि षट् ऋतु तथा शीत-उष्ण, वर्षाकाल तथा शुक्लपक्ष कृष्णपक्ष तथा दिन, रात्रि तथा वार, नक्षत्रादि