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कर्म है। जाके उदय जीव सुखी रहै और सर्व लोग सस्ती करें. भले कर, सो सभा-कर्म है। आके उदय जोस दुख दारिद्रय करि पोड़ित होय ताके जन्मत ही माता-पितादिक कुटुम्ब के मरण कुं प्राप्त भरा होय महादुखी | रहता होय, लोग ताको रंक दीन कहते होय, सो दुभंग-कर्म है। जाके उदय जगत् ते यश पावे, बिना दिये बिना
जाने लोग जाकी कीर्ति करें, सो यशस्कोति-कर्म है। जाके उदय जगत विर्षे बिना जाने बिना देखें लोग पाकी निन्दा कर अपकीरति धारी होय, सो अयशस्कोर्ति-कर्म है। ऐसे नाम-कर्म की तिरानबै प्रकृति जानना। इति नाम-कर्म। आगे गोत्र-कर्म। जहाँ जाके उदय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य-इन तीन कुल के मनुष्यों में तथा चारि प्रकार के देवन में उपजे, सो ऊँच-गोत्र-कर्म है। जाके उदय नरक, तिर्थच इन दो गति में उपजे तथा मनुष्य में हीनाचारी शद्र तिनमें उपजे, सो नीच-गोत्र-कर्म है। इति गोत्र-कर्म । आगे अन्तराय का स्वरूप कहैं हैं। जो कर्म के उदय धन होतें भी दान नहीं दिया जाय, सो दानान्तराय-कर्म है। जा कर्म के उदय अनेक दिनलों उद्यम करे, पराई सेवा करि परिकौं राजी करै, अपनी चतुरतातें सर्वकों प्रसन्न रास अनेक उपाय दीप, उदधि, फिरि व्यापारादि कर तौ भी लाभ नहीं होय, सो लाभान्तराय-कर्म है। जा कर्म के उदय से वस्तु भोगी नहीं जाय, आपका चित्त अपने घर में अनेक शुभ वस्तु देख भोग्या चाहे है, परन्तु भोगि नहीं सके, सो भोगअन्तरायकर्म है। जा कर्म के उदय घर में अनेक उपभोग योग्य वस्तु हैं बिस्तर, हाथी, घोटक, रतन, आभूषन, मन्दिर, स्त्री, रथादि अनेक हैं; परन्तु भोगि नहीं सके, सो उपभोगान्तराय-कर्म है। जा कर्म के उदय अनेक भेषजादि यतन करना, नाना प्रकार षट्रस भोजन करना तो भी तन में पुरुषार्थ पराक्रम नहीं होय, सो वोर्यान्तराय-कर्म है। इति अन्तराय-कर्म। ऐसे अष्टमल कर्म को एक-सौ अड़तालीस (१४८) उत्तर प्रकृति कहीं आगे घाति अघाति कहैं हैं। तहो ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय-रा चारि कर्म घातिया हैं, तिनको प्रकृति सैंतालीस हैं। वेदनोय, आयु, नाम, गोत्र--रा चारि कर्म अधातिया हैं। इनकी प्रकृति एकसौ एक हैं तहाँ । घातिया के भेद दोय हैं। एक तो देशघातिया,एक सर्वचातिया । तहाँ केवलज्ञानावरणीय बिना चारि तौ ज्ञानावरतीय, तीन दर्शनावरणीय, अन्तराय पांव, हास्यादि नव, संज्वलन की चारि और सम्यक प्रकृति-- छब्बीस प्रकृति देश धातिया हैं और केवलज्ञानावरणीय, केवलदर्शनावरसोय, निद्रा पांच, अनन्तानुबन्धी चारि, अप्रत्याख्यान चारि,