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एकसौ अड़तीस लेय अष्टम् में आया, इहाँ ट्युच्छित्ति नाहीं। अरु ३५ लय नवम्मैं गया। तहा नवम् में ठ्युच्छित्ति तिनके नाम-प्रत्याख्यान ४.. अप्रत्याख्यान ४, लोभ बिना संज्वलन की ३, हास्यादि :--- मोह को २० दर्शनावरणीय की मोटीनिद्रा३ और नामकर्म की जाति ४ नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी तिर्यचगति, ] तिर्यंचगत्यानुग मा साधापा, सपा यावर --मोहई नाम-कर्म की सर्व मिलि छत्तीस भई। श नवमें मैं प्युब्धिति करि दश में आया। इहां एकसौ दोय को सत्ता है। तहां सक्ष्म लोम की ट्युच्छित्ति करि बारहवें मैं आया। तहां २०३ को सत्ता है। सो इहां ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय की षट्, अन्तराय की पाँच–रा सोलह की व्युन्छित्ति करि बारहवेंतें पच्यासी लेयके तेरहवें में गया। तहां व्युच्छित्ति नाहीं। पच्यासी लेय चौदहवें में गया। तहाँ पच्यासी की सत्ता अस यहाँ ही उनकी व्युच्छित्ति सो चौदहवें गुणस्थान के अन्त के दोय समय में पच्यासी की व्युच्छित्ति। सो प्रथम समयमै बहत्तरि, चरम समय में तैरा। सो प्रथम समय बहत्तरि तिनके नाम-वेदनीय गोत्र की एक नीचगोत्र, वर्णचतुष्ककी २०, संस्थान ६, संहनन शरीर ५, बन्धन ५, संघात ५, अंगोपांग ३, चाल २, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, अशुरुलघु, निर्माण, उच्छवास, अपघात, परघात, उद्योत, प्रत्येक स्वरदुकको दोय, शुभ, अशुभ, स्थिर, अस्थिर, दुर्भग, अनादेय, अयश-ए सर्व मिलि ७२ जामना । ए तौ चौदहवें गुणस्थान का सर्व काल पुरण होते दोय समय बाकी रहे तहाँ ताई तो व्युच्छित्ति नाहीं । अरु दुचरम समय में इन बहत्तरि को व्युच्छित्ति करी। अब अन्त के समयमै व्युच्छित्ति-पंचेन्द्रिय, पर्याप्ति, स, बादर, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, मनुष्याधु, ऊँचगोत्र, यशस्कीति, आदेय, सुभग, तीर्थङ्कर, वेदनीय—ए तेरा प्रकृति चरम समय ट्युच्छित्ति करि जीव सिद्ध होय है । ऐसे अयोग गुणस्थान में पच्यासी कर्म प्रकृतिन को व्युच्छित्ति करि सर्व कर्मरज-रहित शुद्ध निरंजन अमूर्ति सिद्ध परमात्मा होय हैं। ऐसे शुद्ध आत्माकों बारम्बार नमस्कार होऊ। ऐसे यह पुदगल द्रव्य संसारी जीवन के रागद्वेष परणाम करि झानावरसादि
अष्टकर्मरूप होय जीवन के बन्ध उदय सत्ता रूप होय नर नारकादि अनेक गतिनमैं भ्रमण करावें हैं। । इति श्री सुदृष्टितरङ्गिणीनामग्रन्थमध्ये अजीवतत्त्व द्रव्य कर्म पुद्गलीक तिनका बन्ध, उदय, सत्तारूप परिणमन शक्ति सहित
कथन वर्णनो नाम पंचमपर्व सम्पूर्णम् ॥ ५ ॥