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लगावै तौ लगे। सो पल्लव बीज कहिरा तथा अप्रबोज कहिए। कैतीक वनस्पति ऐसी हैं। तिनका मूल कहिये
जड़ सो ताकी जड़ को लगाये लागे, ऐसे कदली आदि अनेक वनस्पति ऐसी हैं तिनका मूल ही बीज हैं। मूलतें । हो उपजै, तातें मूल बीज कहिए। केतीक वनस्पति रोसी हैं, तिनकी पोरी ही तै उत्पत्ति है। ताको पोरो लगाय लागै ऐसे साठे [ ईख ] आदि सो इनका बीज पोरी ही है तातें इनक पर्व बीज कहिरा है और केतीक वनस्पति रोसी हैं। तिनका कन्द हो लगाय लागै। सो कन्द ताकौं कहिए है जो भमि हो विर्षे जाकी वृद्धि होय ऐसे आदा, सूरण, जमीकन्द, सकरकन्द, रतालु, पिंडाल आदि इनकी कन्द हो तं उत्पत्ति है। तातें इनको कन्दबीज कहिए है। केतीक वनस्पति रोसी हैं तिनका स्कन्ध जो शाखा सो तिनको छोटी-मोटी शाखा तोड़ि लगाईए तो लागें। ऐसे गुलाब, चमेलो, बमरवैलि आदि वनस्पति सो स्कन्ध बीज हैं। केतीक वनस्पति ऐसी हैं जिनकी उत्पत्ति को कारण बोज हो है, बिना बोज नाहीं होय, ऐसे गेहूँ, तन्दुलादि अन्न र बोज ही तैं उपजे हैं इनका बीज अन्नादि है केतीक वनस्पति ऐसी हैं जिनको उत्पत्तिकों कछु कारन नाही बिना बीज सहज ही उत्पत्ति होय ऐसे घास, डाभ, जड़ो, बूटी आदि सो इनको उत्पत्तिक बीजादि नाहीं, सो सम्मूर्छनयना ही बीज है। ऐसे सात भेदरूप वनस्पति की उत्पत्ति कही। इति सुदृष्टि तरंगिणी नाम ग्रन्थमध्ये जोवतत्व वर्शन विर्षे चौबीस प्ररूपणा सामान्य गुणस्थान में समुद्घात के लक्षण तथा सात भेद वनस्पति उत्पत्ति इत्यादि कथन वर्शनो नाम षष्ठ यवं सम्पूखम्। आगे गुणस्थान सम्बन्धी जीवन को संख्या कहिए है। तहाँ प्रथम ही मिध्यात्वी जीवन की संख्या कहिये हैगाथा--भावरमिन्छ अरणम्तो, विकलतीय पंचखा सम्बविणसंखा देव असंखाणारय मिच्छण रसं स्वभासयं देव ॥ १५ ॥ ___ अर्थ—अब कहिए है जो स्थावर राकेन्द्रिय मिथ्यात्विन की राशि अनन्त हैं और विकलत्रय मिथ्यादृष्टि राशि असंख्यात हैं। मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात हैं। नारक मिथ्यादृष्टि असंख्यात हैं। मनुष्य मिथ्यादृष्टि संख्यात हैं। ऐसे च्यारिगति सम्बन्धी मिध्यादृष्टिन का प्रमाण कह्या 1 भावार्थ-पांच स्थावर हैं। तिनमें सर्व से थोड़े प्रमागधारी अग्निकायिक जीव जानना। सो भी ऐसे-ऐसे असंख्यात लोकन के जेते प्रदेश होय, तेते अनिकाय जीव हैं। अग्निकायतें असंख्यात अधिक पृथ्वीकायिक जीव हैं। पृथ्वीकायतें. असंख्यात अधिक अपकाय के