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परिग्रह का त्याग, सो नगन यतीकै परिग्रह त्याग नामा महाव्रत है। ५ इति महाव्रत। आगे पंच समिति का
.१२८ | स्वरूप कहिए है-तहां योगीश्वर दया के भण्डार जब पृथ्वी विर्षे विहार करै तब चलते च्यारि हाथ धरती
देखते चले हैं। सर्व जीवन प्रति महा कोमल चित्त का धरनहारा करुणानिधान, धरती देखें कि कोई जीव हमारे तनतें पीड़या नहीं जाय। जैसे—काह का रतन भमि वि पड़ गया. सो रतन शोषवे निमित्त नीची दृष्टि किरा, धरती देखता चालें। तैसे ही जगत् का पीर हर, जीवरुपी आप समानि रतन, ताके बचावने के निमित्त देखता चलै, सो ईर्या-समिति है। ३ । यतोश्वर वचन बोलें, तब महाहित वचा बोलें। ताक सुनि अन्य जीव सुखी होय,
पुण्य का बन्ध करें। ऐसा पाप रहित जिन-आज्ञा सहित मिष्ट वचन बोलें, सो भाषा-समिति है ।२। भोजन समय | यती भोजन करें तब मन-वचन-काय एकाग्र करि मोजन विर्षे दृष्टि राखें सो निर्दोष चालीस दोष टारि
[बत्तीस अन्तराय, चौदह मलदोष टारि भोजन करें। सो भी यति, जगत भोगनते उदासीन तन ममत्व रहित, निस्पृहता लिए भोजन करें। सो मुनि का भोजन पंच प्रकार है। सो ही कहिये है। प्रथम नाम-गोचरी, भ्रमरी, गरतपूरन, दाह शमन, ओंगरण। इनका अर्थ-जैसे गैया वनमैं चरै सो घास रूखड़ी वृत्त चरै, सो मलतें नहों उपारे। ऊपरि-ऊपरि ते चरै। तैसे ही मुनि गृहस्थकं नहीं सतावै, सहज भ्रमण करि मोजन लेय। सो गोचरी भैद है। ।। जैसे भ्रमर फलकं नहीं सतावै दुरत बास लेय, तैसे मुनि गृहस्थकू नहीं सतावै. गृहस्थक घरते द्वरि अन्तर गमन करे, यह पड़गाहै तब भोजन लेय। सो भ्रमरो भेद है। २ । जैसे कोई खाड़ा (गड़ढा) पूरे तब घास, लकड़ी, पत्थर, राख, मिट्टी, धल जो हाथ आवै, तातै खाड़ा पुरै। तैसे हो यतिनाथ क्षुधारूपी खाड़ा पूरैं। सो चाहे तो भोजन रस सहित होय तथा रस रहित होय। मुनि, योग्य भोजन आचार सहित लेय। पीछे कैसा होय, इनके स्वाद नै काम नाहीं। क्षुधारूपी खाड़ा जैसे-तैसे भरें, सो गत पुरण है।३। जैसे घर कू अग्नि लगे तब राखि धूलि पानी से जैसे बने तैसे बुझावें। तैसे हो मुनिकों नीरस तथा रस सहित चाहै जैसा भोजन || मिलो, क्षुधा अनि बुझावनी। सो याका नाम दाह शमन है।४। गाडी नहीं चले तब तिल तेल प्रतते ओंग के चलाय जैसे-तैसे मंजिल (रास्ता) काटि घर पहुँचें। तैसे ही मुनि मोक्ष घर जाते तनरूपी गाड़ी चलें है। सो रुखा-सूखा शीत-उष्ण चाहै जैसा होहु, शुद्ध आहार चाहिये सो जब क्षुधा का निमित्त जाने तब भोजन का
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