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। ओंगन देय मोक्ष घर पहुँचे, सो ओंगण भेद है। ५। ऐसे यति भोजन करें, सो दोष रहित करें, दोष कसे, | सो कहिर हैंगाषा-दोह छियाली रहियो, अन्ताय तीस दो शुद्धो । दह पर मल दोह होणो, मुणि भोयण होइ णिदोसो ॥ २३ ॥
अर्थ छयालीस दोष, बत्तीस अन्तराय, चौदह मल दोष, जहाँ एते दोष टलैं, तब मुनीश्वर का भोजन शुद्ध होय है। भावार्थ-यति का भोजन निर्दोष होय, तौ लय हैं। कदाचित् दोष लगै तौ अन्तराय करें। सो दोष कसे, सो कहिए हैं। प्रथम छयालीस दोष के नाम--अर्थ कहिए है। तहां प्रथम उद्गम दोष सोलह, सो दाता
के आधीन हैं। इनकी रक्षा दातार के आधीन हैं। इनकी सावधानी दातार करै, नहीं तो दातारको दोष लागै। | तिन सोला के नाम-तहाँ मुनि के निमित्त भोजन करें तौ दाताको दोष लागे। याका नाम उद्दिष्ट-दोष है।। |तहां आगे भोजन किया होय अरु मुनिकों आये जानि, उस भोजनको अत्य जानि तामैं और अन्नादि मिलाय मुनिकौं भोजन देय तौ दाताको दोष लागै। याका नाम साधिक (अध्यधि)दोष है। २। मुनीश्वरको अप्रासुक जो सचित्त भोजन देय तौ दाताकौं दोष लागै याका नाम पूर्ति-कर्म-दोष है । ३। केई असंयमी की भाँति मुनिको भोजन देय तौ दाताको दोष लागै याका नाम मिश्र-दोष है। 81 जिस पात्र मैं भोजन किया (बनाया) था तातै काढ़ि और पात्रनि मैं धरि मुनिको भोजन देय तौ दाताको दोष लागें । याका नाम स्योपिमन्यस्त-दोष है । कोई ध्यन्तरादिक देवनके निमित्त भोजन किया होय तामैं मुनिकों दान देय तौ दाताको दोष लागे। याका नाम बलि-दोष है।६। काल की हीनता अधिकता तथा भोजन का समय चूकि पड़गाहना तथा काल जो दुर्भिक्ष ताके योग करि जो सस्ता धान होय, सो उसका मुनिकों भोजन देय तथा आपकू आकुलता जानि शीघ्र-शीघ्र भोजन देय तथा धीरे-धीरे भोजन देय। ऐसे काल की हीनता-अधिकताकरि यथायोग्य भोजन नहीं देय, तो दाताको दोष लागें। थाका नाम प्राभृतक-दोष है। ७। मुनि महाराज के घर आने पर, भाजनों का अन्य स्थान से अन्य स्थान पर ले जाना, बर्तनों का भस्मसे मांजना, जलसे धोवना तथा मण्डप का उघाड़ना, दीपक का उद्योत करना, सो प्रादुष्कर नामा दोष है।८। मुनीश्वरकौं भोजन के निमित्त आए जानि, तत्काल ही अपना सचित्त-द्रव्य व अचित्त-द्रव्य देय करके आहारकों मोलि ल्याय साधुको आहार देखें वा मन्त्र-तन्त्र विद्या परकं देय भोजन बनवायके मुनिकों