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समभाव होय, सो जगत् गुरु हैं । तिनके पुष्ट करनहार नाना प्रकार भाजन । नाना प्रकार तननिरोगताद अनेक सुख तथा अनेक परीषहन का खेद। तन-रोगादिक अनेक सुख-दुखमैं समताभाव पार्क होय, सो सुगुरु हैं। । १२६ जीर्थ घास के तिनका मैं अरु नाना प्रकार रतनादि स्वर्ग इनमैं समता होय इत्यादिक वीतरागता सहित गुरा जामैं होंय ते गुरु भव समुद्र के तारवेकौं नौका समान हैं। कैसे हैं उन गुरु का काहतें राग-द्वेष नाही, वीतरागो हैं और अन्तरङ्ग तो कषाय कोच रहित महानिर्मल । अरु बाहिर सर्व प्रकार परिग्रह रहित मातृजात नगन हैं। मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्थय इन आदि महाअतिशयकारी ज्ञान के धारी हैं। ऐसे योगीश्वर सो सुगुरु हैं। इन्द्र देवादि चक्रवादि सम्यग्दृष्टि जीवन करि पूजने योग्य हैं। आगे सुगुरु ही का स्वरूप कहिरा है
गाथा-मणइन्दी जय सूरा, बीरा संकट सहण दो बीसा । तणः खीणा मण सुखिया, सो होई गुरु तरण ताराए । २९ । । अर्थ-पंच-इन्द्रिय अरु मन का रा महाबलवान हैं। इनके वश इन्द्र, चक्रो आदि तीन लोक के राजा होय रहे हैं। जैसे मन-इन्द्रिय चलावै है तैसे इन्द्रियादिक चाले हैं। तातै संसारमैं ए मन-इन्द्रिय ही महायोधा है। तिनके जीतनेकौं यतीश्वर ही महासुरमा है और कैसे हैं गुरु बाईस संकट जो परीषह तिनके देखें ही बड़े-बड़े साहसीन का साहस भयखाय जाता रहै। ऐसे दुर्धर परीषह तिनके जोतवेकौं ये ही योगीश्वर महाधीरवीर हैं। सो इन परिवहन का स्वरूप आगे कहँगे तातै यहाँ नाहों कह्या । फेरि गुरु कैसे हैं ? नाना प्रकार तपररूप अगनि मैं जल्या शरीर सो तन तपते महाक्षीण भया है। बाकी नसें, चाम, हाड़न का जाल रह गया है। तातें तनके तौ शोण हैं अरु मन विष समताभाव करि अनुपम अमृतपानतें महासुखी हैं। सो ही गुरु तरण-तारण हैं। ये ही सम्यग्दृष्टिन करि पूजने योग्य उपादेय हैं। आगे और भी सुगुरु का स्वरूप कहिए हैगाथा-पंच महावय सहियो, समवोपन अलगयन्द बशीकरई । आवसि षट् सेसो जो सस अहवीस मूलगुण साहू ॥ २२ ॥
अर्थ-पंच महाव्रत सहित होय, पंच समिति के रक्षक होय, पंच इन्द्रियरूपी हस्ती कू वशीकरनहारे होय, | २६ । षट् पावश्यकन मैं सावधान होय और जो सात शेष गुण के धारक होय। ऐसे अठाईस मूल गुण जा मुनि के
नोय, सो शुद्ध गुरु हैं। भावार्थ-जे योगीश्वर ध्यान-अध्ययन विर्षे प्रवीण, जगत गुरु, अठाईस मल गुरा पालवे मैं प्रमाद रहित होय प्रवत हैं। सोही मूलगुण यतीश्वर का धर्म है। सो मलगुण बताइए हैं। महावत पाँच,