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है। ऐसा ही अतिशय है। जहां भगवान तिण्डे, तहां तिष्ठते--सर्प, मोर, सिंह-गाय इत्यादि जाति विरोधी जीव, द्वेष तषि मित्रता भनें। तहा की भूमि बारसी समान निर्मल होय, भगवान विराजता वन में, षट् ऋतु के फल-फूल होंय और समोशरण के चारों तरफ मन्द-सुगन्ध-पवन चाल तातें सुसमयी रहैं सर्व जीव सुखी होंय और जहाँ भगवान् विराज, तहाँ के प्राणी सदैव-सहज ही सर्व भूमि कंटक रहित होय महासुगन्ध जल की वर्षा होय। भगवान्जी विहार कर्म करें, तब पद-पद पै देव कमल रचते जाय, भगवान जहां पांव धेरै तहाँ देव पन्द्रह-पन्द्रह फूलन की पन्द्रह-पन्द्रह पंक्ति करि दो सौ पच्चीस कमलन का चौकोर समूह धरते जाय हैं। आकाश निर्मलताकं धरें। रज वलादि नाहीं होय। दशौं दिशा महाशोभायमान निर्मल भार्से। विहार समय देव अपने शीश पै धर्मचक्र कौं आगे लिए चलें अष्ट द्रव्य-पंखा, चमर-छत्र, कलश, मारी, दर्पण ( एना), ध्वजा, ठौनों-रा मंगल द्रव्य एक-एक जाति के एक सौ आठ होय, सो आठसौ चौसांठ भए। तिनको एक-एक देव, एक-एक मंगल द्रव्य, विनय सहित भगति [ भक्ति त विहार समय लिए चलें। आकाश मैं असंख्यात देव जय-जय शब्द करते चले जाय। ४। ऐसे चौदह अतिशय देव कृत हैं । सो अतिशय का माहात्म्य तो भगवान का है, निमित्त मात्र देवन की भक्ति का सहाय है। र सर्व मिलि चौतीस अतिशय भए । प्रागे वसु [आठ ] प्रातिहार्य कहिये हैंगावा-तरु असोय सविठी, दिव्यधुणि चमर सीहपीठाया। भामण्डल दुन्दुभि अपणो, पातपहर पातहाज वसुभेयो ॥१९॥
अर्ध-अशोकवृक्ष, महासुगन्धित फूलों की वर्षा, दिव्य-ध्वनि, चमर, सिंहासन, प्रभामण्डल, दुन्दुभी बाजे और पत्र-ए अष्ट प्रातिहार्य हैं। भावार्थ-भगवान के विराजवे को गन्धकुटी ताके ऊपरि अशोक नाम रतनमयी वृक्ष है । तामै रोसा अतिशय पाइए है, जो ताकौं देखें महातीव्र शोक होय, सो मी जाता रहै और सुखी होय ।२।जहाँ भगवान विराज, तहाँ कल्प वृक्षन के रतनमयी, महासुगन्धित, कोमल अनेक वरश के फूलों को वर्षा होय।२। भगवान की वाणी बिन अक्षरी, मेघ को गर्जना समान, होटतें होट नहीं लगे, सर्व जीवनकों हितदाई,
अनेक संशय नाशनी, भगवान की दिव्य-ध्वनि खिरे है। सो एक दिन मैं तीन बार प्रभात, मध्याह्न और साँझ | खिरै। कोऊ शास्वन मैं अर्धरात्रिक खिरे, रौसी कही है। ताकी अपेक्षा एक दिन मैं च्यारि बार पाणी खिरे है।
सौ एक-एक वाणी की ध्वनि छै- घड़ी पर्यन्त काल समय होय। सो दिव्य-ध्वनि प्रातिहार्य कहिए है 1३।