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दया-माव होय । गमन करते कोई जीवकों बाधा न होय, कवलाहार नाहीं। इहाँ प्रश्न—कवलाहार के षट् भेद हैं सो यहाँ कवलाहार मने किया, सो केवलझान में पंच आहार तो होते ही हैं। ताका समाधान भो भव्य ! तुं षट ही प्रकार आहार का स्वरूप सुनि, ज्यौं नेरा सन्देह जाय। प्रथम नाम-कर्म आहार, नो-कर्म माहार, | ओज आहार, मानसिक आहार, कवलाहार, लेप आहार षट् हैं। अब इनका सामान्य अर्थ कहिर है-तहाँ झानावरणी जादि कर्म वर्गणा का ग्रहरा करना, सो कर्म आहार है। सो केवली के और कर्म का बन्ध नाही, सो बन्ध के अभावतें कर्म का आहार नाहीं। एक सातावेदनीय का बन्ध है, सो भी नाममात्र उपचार बन्ध है। सो स्थिति अनुभाग रहित है। परन्तु उपचार से कर्म आहार इहां कहिए है। औदारिक, शरीर जाति के नो-कर्म परमाणु का ग्रहण तेरहवें गुणस्थान तक है। तातें नो-कर्म आहार केवली के पाइये है, परन्तु यहां कवलाहार की मुख्यता है, तात याका विचार नाहीं किया। ओज आहार ताका नाम है। जैसे—चिड़िया अण्डेनकू छाती नीचे दाबै तिष्ठी रहै. ताकरि अण्डा में उपजनहारेन का पोस्ख है। सो ओज आहार कहिये सो ये आहार अण्डज जीवन के होय है और के नाहीं । तातें केवली के ओज आहार नाहीं भोजन मन चलै हो तृप्ति होय,सो मानसिक आहार कहिए। यह आहार देवन के होय है और कै नाहीं तातें जिनदेव कै मनसा आहार भी नाहीं । शरीर में लगै तृप्तिता होय, सो लेप आहार है। यह एकेन्द्रियनकै होय है औरन के नाहीं। तातें भगवान केवली के लेप आहार भी नाहीं । अन्न, मेवा, जल इन आदि आहार मनुष्य तिर्यंचन के है, सो कवलाहार है। यह जिह्वा इन्द्रिय द्वारा ग्रहण होय है। सो यह कवलाहार भी, निर्दोष जिन भगवान के नाही। अरु यहाँ मुख्यता कवलाहार के कथन की है। तातै भगवानकै कोई आहार नाहीं जानना। ऐसे भगवानकै केवलज्ञान भए कवलाहर नाही, केवलज्ञान भए पीछे जगत्बन्धु के उपसर्ग नाहीं होय, केवलो के शरीरकै छाया नहीं होय, सर्व विद्या के नाथ हैं. नस्ल केश नहीं बढ़े, केवलज्ञान उपजत जेते थे तेते ही रहैं अनन्तबली की भौंह दिमक नाही, एकाग्र रहैं ऐसे भगवान केवलज्ञान होय पीछे, र दश अतिशय प्रगट होय हैं। ऐसे केवलज्ञान भए के अतिशय कहे। आगे देवनकृत चौदह अतिशय कहिए हैं
जब भगवान् केवली की समोशरणमैं वाणी खिर, ताकू सुनि सर्व प्राणी अपनी-अपनी भाषा मैं सममि लेय
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