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नाक, नेत्र, कानादि छोटे होंय तथा प्रः अंगुली होंय तथा बड़े होंय अरु जो स्थान निर्माण भला नहीं होय तौ अंगोपांग स्थान चूंकि होंय, तब असुहावने होय। ऐसे निर्माण प्रकृति दोय प्रकार जानना । जा जीवनें पहले भव में सोलह कारण भावनादिक निमित्तकर तीर्थङ्कर-कर्म बांध्या होय जाके उदय पञ्चकल्याणक होय तथा दीक्षा के आठ वर्ष पहिले जिनने तीर्थंकर का कर्म बांध्या ताके तीन कल्याणक होंय तथा दीक्षा लिये पीछे बांध्या हॉय, ताके दोय कल्याणक हाँय और जाके अन्तर्मुहूर्त आयु में बाकी रह्या ऐसा यतीश्वर तीर्थंकर का बंध भया होय तिनकें ज्ञान-निर्वाण दोय ही कल्याणक एक काल होंय । समवशरणादि विभूति प्रगट नहीं होंय । ऐसे जा कर्म के उदय पंचकल्याणक तथा तीन कल्याणक होंय, जिनके समवशरणादि विभूति प्रगटै सो तीर्थकर कर्म है। ऐसा अगुराष्टक। आगे दुकदश है। तहां जाके उदय अपने योग्य जीव पर्याप्ति धारि पांच षट् का धारन करे. सो पर्याप्त कहिये । जाके उदय शरीर पर्याप्त पूरा नहीं होय पहले हो मरण करें, सो अपर्याप्त कर्म है। जा कर्म के उदय एक शरीर का स्वामी एक जीव होय, सो प्रत्येक कर्म है । जाके उदय एक शरीर के अनन्त जीव स्वामी होय, सो साधारण कर्म है । जाके उदय दुख जाये दुख मेटवे की शक्ति होंय और सुखी होने को अपनी शक्ति प्रमाण करि कायकौ चंचल करि सर्के, सो त्रस-कर्म है । जाके उदय सुख दुख आये स्थावर में ही सह, मैने को असमर्थ, सी स्थावर कर्म है । जाके उदय ऐसा शरीर पावै जाकरि अन्य बादर पदार्थन कौं जाप रोकै तथा अन्य बादर पदार्थन करि आप गमन करता रुके, सो बादर-कर्म है। जाके उदय आपके ऐसा शरीर हो, सो कोई पर्वत, बज्रादिक तैं नहीं रुकै तथा जाप कोईन कूं नहीं रोके अग्रित, शस्त्र, इत्यादिक निमित्तन मैं नहीं मरै, सो सूक्ष्म-कर्म है। महानिष्ट सुस्वर सबको प्रिय शब्द निकसै सो सुस्वर- कर्म है। जाके उदय ऐसा शब्द निकले जो सर्वक बुरा लगै सो आपको भी बुरा लागे सो दुस्वर-कर्म है। जाके उदय शरीर में कोई ऐसा शुभ चिह्न अंगोपांग में होंय जाकरि सर्वको वल्लभ (प्रिय) होय, सो शुभ-कर्म है । जाके और उदय शरीर में ऐसा कोई चिह्न होय, जाकरि आप सबक बुरा लागे, सो अशुभ कर्म है। जाकै उदय शरीर के सप्तधातु आदि चलाचल रहें जाकर रोग वेष्टित शरीर होय, सो अस्थिर कर्म है। जाके उदय आत्मा जहाँ जाय तहाँ आदर पायें, सो आदेय कर्म है । जाके उदय आत्मा जहाँ जाय तहाँ अनादर पावै, अपमानतें आत्मा दुखी होय, सो अनादेय
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