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इन्द्रियों का क्षयोपशम सहित शरीर का थारना, सो पंचेन्द्रिय जाति है। इति जाति। आगे अङ्गोपाङ्ग का स्वरूप कहिय-गाठ वाक उपाय। सो हाथ दोथ परदीय मस्तक एक नितम्ब एक छाती एक पीठ एक ऐसे ।। आठतौए अङ्ग है। अङ्ग में लक्षण होय, सो उपाङ्ग हैं। जैसे--शोश में मुख, कान, नाक, नेत्रादि-ए उपाङ्ग है तथा हाथ, पावन की अंगुली आदि अनेक विधि, सो उपाङ्ग हैं। सो रा अङ्ग-उपाङ्ग तीन शरीरन में होंय हैं। तेजस कार्मरण के नाहीं। तहां जा कर्म के उदय मनुष्य तिर्यंच के शरीरन में अङ्गोपाङ्ग होय, सो जौदारिक अङ्गोपाङ्ग है और जा कर्म के उदय प्रमत्तगुणस्थानवर्ती मुनीश्वर के मस्तकतें संशय के निमित्तपाय आहारक शरीर में जङ्गोपाङ्ग होय, सो आहारक अंगोपांग है। जा कर्म के उदय देव नारकी के वैक्रियिक शरीर में अंगोपांग होय, सो वैकियिक अंगोपांग है। इति तीन अंगोपांग। प्रागे विहायोगति कहिये है। तहां जा कर्म के उदय जीव की शुभ चाल होय, सो शुभ विहायोगति-कर्म है। जाके उदय अशुभ चाल होय, सो अशुभ विहायोगति-कर्म है। इति चाल। ऐसे पिंड प्रकृति पेंसठि कहीं। आगे अपिंड प्रकृति कहिर है-तहां जा कर्म के उदय जीव का शरीराकार आत्मप्रदेश यथावत् रहै. हलका भारी नहीं होय, सो मगुरुलघु-कर्म है। जहां शरीर में जाके उदय ऐसे स्थान होय, जिनकरि पवन संचे-निकासे, सो श्वासोश्वास-कर्म है। तहाँ जाके उदय रोसा शरीर होय, जो मूल में तो शीतल अरु जाको प्रभा उष्ण, सो आतप-कर्म है। सो यह प्रकृति सूर्य के विमान सम्बन्धी पृथ्वी कायिक जीव हैं, तिनक होय है। इन एकेन्द्रिय बिना और स्थावरन इसका उदय नाहीं। जाका शरीर शीतल होय, व ताकी प्रभा भी शीतल होय. सो उद्योत-कर्म है। ए प्रकृति एकैन्द्रिय आदि पंचेन्द्रिय तिर्यश्चन के उदय होय है, बाकी तीन गति में नाहीं। जहां जा शरीर में चिह्न अंगोपांग होय जाकर अपना ही घात होय, जैसे-साम्हरि के सोंगादिक जाके भारतें मरे, सौ अपघात-कर्म है। जहाँ जाके उदय शरीर में ऐसे चिह्न अंगोपांग होंय जाकर आप-पर का घात करे, सो पर-घात-कर्म है। निर्माण प्रकृति के दोय भेद हैं। एक
स्थान-निर्माण-एक प्रमाण-निर्माण है। जहां शरीर में जाके अंगोपांग के स्थान होय, सो तौ स्थान-निर्माण८३ | कर्म है। जाके उदय शरीर में अंगोपांग के प्रमाण यथावत् होंय, सो प्रमाण-निर्माण है। जो प्रमाण-निर्माण |
भला नहीं होय तो अंगोपांग अधिक हीन होय, के तौ अंगुली चारि होंय तथा छः अंगुली होय तथा हस्त, पांव,