________________
कर्म का बन्ध काया है। केतक अतत्वश्रद्धानी दीर्घमोह के उदयतें ऐसा माने हैं जो हम सम्यकवन्त है। सो हमारे कर्मबन्ध होता नाही हम अबन्ध हैं। ऐसा उल्टा श्रद्धानकरि कर्मबन्ध के गेटवेत निरुथमी होय,
आपको अशुद्ध का शुद्ध मानि अनेक असंयमक्रियाकरि विषय-कषायन रूप परगति करि, अपना परभव बिगाडें हैं। ताकौ कहिये है। मो विषयन के लोमी! तूं देखि। कमन का बन्ध मुनीश्वरों तें लगाय केवली भगवान् ताई यथायोग्य गुरास्थान ताई पदस्थप्रमाण, समस्त संसारी जीवनकों होय है। जे कर्मरहित जीव हैं तिनके कर्म का बन्ध नाहीं होय है। तातै भो भव्यात्मा! तूं स्वेच्छाचार परिणाम तजिकै जिनदेव-भाषित प्रमाण, सरधान करि, आपका अनादि संचित कर्मबन्ध रूपमलत शुद्ध होयवे का उपाय करि । तात अतीन्द्रिय सुख का मोक्ता होय । ऐसे सयोग केवलीगुणस्थान में एक सातावेदनीय का बन्ध ताकी व्युच्छित्ति करि प्रयोगकेवली होय, अल्पकाल रहकै सिद्धपढ़ पावें हैं। ऐसा सामान्य बन्ध का स्वरूप कह्या । इति बन्ध प्रकरण समाप्तम् । ४।
आगे गुणस्थानप्रति कर्मन का उदय कहिये है। तहाँ बन्ध में मिथ्यात्व एक था 1 यहां दर्शनमोहनीय की तीन जानना, सो एकसौ बीस तौ बन्ध को। सम्यग्मिध्यात्व सम्यकप्रकृति र दोय और बधाई. तब उदय योग्य एकसौ बाईस हैं । १२२ । अब नाना जीव अपेक्षा गुणस्थान कहिये हैं तहाँ मिथ्यात्व में आहारकद्विक को दोय । तीर्थकर सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति, र पंच प्रकृति मिध्यात्व में उदययोग्य नाहीं। तारौं प्रथम गुणस्थान में एकसौ सग्रह का उदय है। तहाँ सूक्ष्म, साधारण, अपाप्ति, जातप और मिथ्यात्व-र पंच प्रकृति मिथ्यात्व में व्युच्छित्ति करि एकसौ बारह प्रकृति लेय सासादन में आया । सो यहाँ नरकानुपूर्वी उतारी, तहाँ एकसौ ग्यारह का सासादन मैं उदय । तहां अनन्तानुबन्धी चार, जाति च्यारि । ४ । स्थावर इन नव की ध्धुच्छित्ति करि मिश्रगुणस्थान में एकसौ दोय लेय आया। तीन अानुपूर्वो उतारी तब निन्यानवे रहों। तहाँ एक मिश्रमोहनीय मिली। तहाँ मित्रगुणस्थान में एकसौ प्रकृति का उदय है। तहाँ मिश्रमोहनीय को
व्युच्छित्ति तीजे गुणस्थान करि चौथे गुणस्थान में आया। तहाँ आनुपूर्वी च्यारि सम्यकप्रकृति ए पंच यहाँ मिली | | तब चौथे मैं एकसौ च्यारि का उदय है। इहाँ सत्तरह की व्युच्छित्ति। तिनके नाम-अप्रत्याख्यान । ४ । देवगति