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प्रस्तावना
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एकमात्र इनके द्वारा रचित साहित्यकी पूर्वपरम्परा ही ऐसी प्रकाशकिरण है जो इस अन्धकारका विच्छेद कर सन्मार्गका प्रकाश करती है । एक ओर आत्मा और परनिरपेक्ष आत्मीय भावोंको छोड़कर अन्य सबको यहाँतक कि आत्मामें जायमान नमित्तिक भावोंको भी पर कहना और दूसरी ओर वस्त्र-पात्र के स्वीकारको व्यक्तिस्वातन्त्र्य का मार्ग बतलाना इसे तस्वज्ञानकी कोरी विडम्बनाके सिवा और क्या कहा जा सकता है। हमारा तो दृढ़ विश्वास है कि प्रत्येक व्यक्तिको स्वतन्त्र सत्ताको उद्घोषणा करनेवाला और ईश्वरवादके निषेध द्वारा बाह्य निमकी प्रधानताको अस्वीकार करनेवाला धर्म मोक्षमार्ग में निमित्तरूपसे वस्त्र पात्रके स्वीकारका कभी भी प्रतिपादन नहीं कर सकता । आचार्य कुन्दकुन्दने यदि किसी तथ्यको स्पष्ट किया है तो वह एकमात्र यही हो सकता है। कुछ विद्वान् समझते हैं कि उन्हें नाग्न्यका एकान्त आग्रह था और उनके बाद ही जैनपरम्परा में इसपर विशेष जोर दिया जाने लगा था । किन्तु मालूम होता है कि वे इस उपालम्भ द्वारा जैनदर्शनकी दिशा ही बदल देना चाहते हैं । जैनदर्शन में वस्तुका विचार एकमात्र व्यक्तिस्वातन्त्र्य के आधारपर ही किया गया है, अतएव उसकी प्राप्तिका मार्ग स्वावलम्बन के सिवा और क्या हो सकता है। एक व्यक्ति द्वारा अन्य पदार्थों का स्वीकार उसकी चंचलता और कषायके कारण ही होता है । यह नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति वस्त्र और पात्रको भी स्वीकार करे और वह बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारसे परिग्रहहीन भी माना जाये । स्पष्ट है कि आचार्य कुन्दकुन्दने नाग्न्यकी घोषणा कर उसी मार्गका प्रतिपादन किया है जिसे अनन्त तीर्थंकर अनादि काल से दिखलाते आये हैं। ऐसे महान् आचार्यकी कृतिरूपसे इस समय समयप्राभूत, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, द्वादश अनुप्रेक्षा और अष्टाभूत आदि उपलब्ध होते हैं। आचार्य पूज्यपादने इस साहित्यका भरपूर उपयोग किया है यह बात सर्वार्थसिद्धिके जालोउनसे भलीभाँति विदित होती है। आचार्य पूज्यपादने ऐसी दस गाथाएँ उद्धृत की हैं जिनमें से एक गाथा पंचास्तिकाय में, एक गाथा नियमसारमें तीन गाथाएँ प्रवचनसार में और पाँच गाथाएँ द्वादश अनुप्रेक्षा में उपलब्ध होती हैं। ये गाथाएँ उन ग्रन्थोंके किस प्रकरणकी है यह हमने उन उन स्थलोंपर टिप्पण में दिखलाया ही है।
मूलाचार – दिगम्बर परम्परा में स्वीकृत मूलाचार मुनि आचारका प्रतिपादक सर्वप्रथम ग्रन्थ है । इसके कर्ता आचार्य वट्टकेर हैं । हमारे सहाध्यायी पं० हीरालालजी शास्त्रीने 'वट्टकेर आचार्य' का अर्थ 'वर्तक एलाचार्य' करके इसके कर्तारूपसे आचार्य कुन्दकुन्दको अनुमानित किया है। उनके इस विषय के 2-3 लेख इसी वर्ष के अनेकान्त में प्रकाशित हुए हैं जो विचारकी नयी दिशा प्रस्तुत करते हैं । किन्तु उन लेखोंसे इस निष्कर्ष पर पहुँचना सम्भव नहीं दिखाई देता कि आचार्य कुन्दकुन्दने ही इसे मूर्तरूप दिया है। मूलाधार में एक प्रकरणका नाम द्वादशानुप्रेक्षा है। आचार्य कुन्दकुन्दने स्वतन्त्र रूपसे 'बारह अणुपेक्खा' ग्रन्थ की रचना की है। कमसे-कम इससे तो यही मानना पड़ता है कि मूलाचार कृतिके रचयिता आचार्य वट्टकेर ही होने चाहिए, आचार्य कुन्दकुन्द नहीं वीरसेन स्वामीने धरला टीका में इसका आचारांग नामसे उल्लेख कर इसकी एक गाथा उद्धृत की है। यहाँ आचार्य पूज्यपादने भी इसकी दो गाथाएँ सर्वार्थसिद्धिमें दी हैं ।
पंचसंग्रह - दिगम्बर परम्परा में पंचसंग्रहका बहुत बड़ा स्थान है। इसके सम्बन्ध में हमने श्वेताम्बर ग्रन्थसप्ततिकाकी भूमिका में प्रकाश डालते हुए यह सम्भावना प्रकट की थी कि इसका संकलन श्वेताम्बर पंचसंग्रहकर्ता चन्द्रषिमहत्तर के पहले हो चुका था । इसकी दो गाथाएँ आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि में भी उद्धृत की हैं। इससे विदित होता है कि बहुत सम्भव है कि दिगम्बर परम्परामान्य प्राकृत पंचसंग्रहका संकलन आचार्य पूज्यपादके पूर्व हुआ हो । अब यह ग्रन्थ उपलब्ध होकर प्रकाश में आ सका है। आचार्य अमितगतिने इसी के आधार से संस्कृत पंचसंग्रहका संकलन किया है।
पाणिनीय व्याकरण – आचार्य पूज्यपादने स्वयं 'जैनेन्द्र व्याकरण' लिखा है और उसपर न्यासके
1. देखो आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल आगरासे प्रकाशित सप्ततिकाकी भूमिका, पृष्ठ 23 से 26 तक ।
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