________________
-4114 § 4697
चतुर्थोऽध्यायः
एकादशभिर्योगविशेस्मप्राप्य ज्योतिष्काः प्रदक्षिणाश्चरन्ति । S 160 गतिमज्ज्योतिस्संबन्धेन व्यवहारकालप्रतिपत्त्यर्थमाह-तत्कृतः कालविभागः ॥14॥
$ 469. ' तद्' ग्रहणं गतिमज्ज्योतिः प्रतिनिर्देशार्थम् । न केवल्या गत्या नापि केवलैज्योंतिभिः कालः परिच्छद्यते; अनुपलब्धेरपरिवर्तनाच्च । कालो द्विविधो व्यावहारिको मुख्यश्च । व्यावहारिकः कालविभागर तत्कृतः समयावलिकादिः क्रियाविशेषपरिच्छिन्नोऽन्यस्यापरिच्छिन्नस्य परिच्छेदहेतुः । मुख्योऽन्यो वक्ष्यमाणलक्षणः ।
1185
फलता है । यहो कारण है कि वे निरन्तर गमन करने में ही रत रहते हैं । यद्यपि ज्योतिषी देव मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते हैं तो भी वे मेरु पर्वत से ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूर रह कर ही विचरण करते हैं ।
$ 468. अब गमन करनेवाले ज्योतिषियोंके सम्बन्धसे व्यवहार-काल का ज्ञान करानेके लिए आगे का सूत्र कहते हैं
उन गमन करनेवाले ज्योतिषियोंके द्वारा किया हुआ कालविभाग है ॥14॥
$ 469. गमन करनेवाले ज्योतिषी देवोंका निर्देश करनेके लिए सूत्रमें 'तत्' पदका ग्रहण किया है । केवल गतिसे कालका निर्णय नहीं हो सकता, क्योंकि वह पायी नहीं जाती और गतिके बिना केवल ज्योति से भी कालका निर्णय नहीं हो सकता, क्योंकि परिवर्तनके बिना वह सदा एक-सी रहेगी । यही कारण है कि यहाँ 'तत्' पदके द्वारा गतिवाले ज्योतिषियोंका निर्देश किया है । काल दो प्रकार का है--व्यावहारिक काल और मुख्य काल । इनमें से समय और आवलि आदि रूप व्यावहारिक काल विभाग गतिवाले ज्योतिषी देवोंके द्वारा किया हुआ है । यह क्रिया विशेषसे जाना जाता है और अन्य नहीं जानी हुई वस्तुओंके जाननेका हेतु है। मुख्यकाल इससे भिन्न है जिसका लक्षण आगे कहनेवाले हैं
विशेषार्थ - मनुष्य मानुषोत्तर पर्वतके भीतर पाये जाते हैं । मानुषोत्तर पर्वतके एक ओरसे लेकर दूसरी ओर तक कुल विस्तार पैंतालीस लाख योजन है । मनुष्य इसी क्षेत्रमें पाये जाते 'हैं इसलिए यह मनुष्यलोक कहलाता है । इस लोकमें ज्योतिष्क सदा भ्रमण किया करते हैं । इनका भ्रमण मेरुके चारों ओर होता है । मेरुके चारों ओर ग्यारहसौ इक्कीस योजन तक ज्योतिष्क मण्डल नहीं है । इसके आगे वह आकाशमें सर्वत्र बिखरा हुआ है । जम्बूद्वीपमें दो सूर्य और दो चन्द्र हैं । एक सूर्य जम्बूद्वीपकी पूरी प्रदक्षिणा दो दिन रात में करता है । इसका चार क्षेत्र जम्बूद्वीप में 180 योजन और लवण समुद्र में 3300 योजन माना गया है। सूर्यके घूमनेकी कुल गलियाँ 184 हैं । इनमें यह क्षेत्र विभाजित हो जाता है। एक गलीसे दूसरी गलीमें दो योजनका अन्तर माना गया है । इसमें सूर्यबिम्बके प्रमाणको मिला देनेपर वह 200 योजन होता है । इतना उदयान्तर है । मण्डलान्तर दो योजनका ही है । चन्द्रको पूरी प्रदक्षिणा करनेमें दो दिन-रात से कुछ अधिक समय लगता है । चन्द्रोदयमें न्यूनाधिकता इसीसे आती है । लवण समुद्र में चार सूर्य, चार चन्द्र; धातकीखण्डमें बारह सूर्य, बारह चन्द्र, कालोदधिमें व्यालीस सूर्य, व्यालीस चन्द्र और पुष्करार्ध में बहत्तर सूर्य, बहत्तर चन्द्र हैं । इस प्रकार ढाई द्वीपमें एक सौ बत्तीस सूर्य और एक सौ बत्तीस चन्द्र हैं । इन दोनोंमें चन्द्र, इन्द्र और सूर्य प्रतीन्द्र हैं। एक-एक चन्द्रका परिवार एक सूर्य, अट्ठाईस नक्षत्र, अठासी ग्रह और छ्यासठ हजार नौ सौ कोड़ाकोड़ी तारे हैं । इन ज्योतिष्कोंका गमन स्वभाव है तो भी अभियोग्य देव सूर्य आदि के विमानोंको निरन्तर ढोया करते हैं । ये देव सिंह, गज, बैल और घोड़ेका आकार धारण किये रहते हैं । सिंहाकार देवोंका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org