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सर्वार्थसिद्धौ
[5133 § 589
संबन्धा जनकत्वजन्यत्वादिनिमित्ता न विरुध्यन्ते ; अर्पणाभेदात् । पुत्रापेक्षया पिता, पित्रपेक्षया पुत्र इत्येवमादिः । तथा द्रव्यमपि सामान्यार्पणया नित्यम्, विशेषार्पणयानित्यमिति नास्ति विरोधः । तौ च सामान्यविशेषौ कथंचिद् भेदाभेदाभ्यां व्यवहारहेतु भवतः ।
8589. अत्राह, सतोऽनेकनयव्यवहारतन्त्रत्वात् उपपन्ना भेदसंघातेभ्यः सतां 'स्कन्धात्मनोत्पत्तिः । इदं तु संदिग्धम्, किं संघातः संयोगादेव द्वयणुकादिलक्षणो भवति, उत कश्चिद्विशेषोऽवनियत इति ? उच्यते, 'सति संयोगे बन्धादेकत्वपरिणामात्मकात्संघातो निष्पद्यते । यद्येवमिदमुच्यतां, कुतो नु खलु पुद्गलजात्यपरित्यागे' संयोगे च सति भवति केषांचिद् बन्धोऽन्येषां च नेति ? उच्यते, यस्मात्तेषां पुद्गलात्माविशेषेऽप्यनन्तपर्यायाणां परस्परविलक्षणपरिणामादाहितसामर्थ्याद्भवन्प्रतीतः -
स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः ॥ 330
$ 590. बाह्याभ्यन्तरकारणवशात् स्नेहपर्यायाविर्भावात् स्निह्यते' स्मेति स्निग्धः । तथा रूक्षणाद्रक्षः । स्निग्धश्च रूक्षश्च स्निग्धरुक्षौ । तयोर्भावः स्निग्धरूक्षत्वम् । स्निग्धत्वं चिक्कणगुणलक्षणः पर्यायः । तद्विपरीतपरिणामो रूक्षत्वम् । 'स्निग्धरूक्षत्वात्' इति हेतुनिर्देश: । तत्कृतो
प्रकार है -- जैसे देवदत्तके पिता, पुत्र, भाई और भान्जे इसी प्रकार और भी जनकत्व और जम्यत्व आदिके निमित्तसे होने वाले सम्बन्ध विरोधको प्राप्त नहीं होते । जब जिस धर्मकी प्रधानता होती है उस समय उसमें वह धर्म माना जाता है। उदाहरणार्थ- पुत्रकी अपेक्षा वह पिता है और पिताकी अपेक्षा वह पुत्र है आदि । उसी प्रकार द्रव्य भी सामान्यकी अपेक्षा नित्य है और विशेषकी अपेक्षा अनित्य है, इसलिए कोई विरोध नहीं है । वे सामान्य और विशेष कथंचित् भेद और अभदकी अपेक्षा ही व्यवहारके कारण होते हैं ।
8589. शंका - सत् अनेक प्रकारके नयके व्यवहारके आधीन होनेसे भेद, संघात और भेद-संघातसे स्कन्धोंकी उत्पत्ति भले ही बन जावे परन्तु यह संदिग्ध है कि द्वयणुक आदि लक्षणवाला संघात संयोगसे ही होता है या उसमें और कोई विशेषता है ? समाधान-संयोगके होनेपर एकत्व परिणमन रूप बन्धसे संघातकी उत्पत्ति होती है । शंका-यदि ऐसा है तो यह बतलाइए कि सब पुद्गलजाति होकर भी उनका संयोग होनेपर किन्हींका बन्ध होता है और किन्हींका नहीं होता, इसका क्या कारण है ? समाधान—चूँकि वे सब जातिसे पुद्गल हैं तो भी उनकी जो अनन्त पर्यायें हैं उनका परस्पर विलक्षण परिणमन होता है, इसलिए उससे जो सामर्थ्य उत्पन्न होती है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि-
स्निग्धत्व और रूक्षत्वसे बन्ध होता है ॥33॥
8 590. बाह्य और आभ्यन्तर कारणसे जो स्नेह पर्याय उत्पन्न होती है उससे पुद्गल स्निग्ध कहलाता है । इसकी व्युत्पत्ति 'स्निह्यते स्मेति स्निग्ध:' होगी । तथा रूखापनके कारण पुद्गल रूक्ष कहा जाता है । स्निग्ध पुद्गलका धर्म स्निग्धत्व है और रूक्ष पुद्गलका धर्म रुक्षत्व है। पुद्गलकी चिकने गुणरूप जो पर्याय है वह स्निग्धत्व है और इससे जो विपरीत परिणमन है वह रूक्षत्व है । सूत्रमें 'स्निग्धरूक्षत्वात्' इस प्रकार हेतुपरक निर्देश किया है । तात्पर्य यह है कि
1. स्कन्धानामेवोत्प - दि. 1, दि. 2, आ. । 2. - कुतोऽत्र खलु दि. 1, दि. 2 1 3 -त्यागे सति मु. । 4. - ह्यतेऽस्मिन्निति मु.
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