Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 522
________________ 402] सर्वार्थसिद्धि कम मुहर्त पर्यन्त अन्तर्मुहूर्त होता है। इस प्रकार इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा प्रमत्त गुणस्थानका अन्तर्मुहर्त के असंख्यात भेद होते हैं। कहा भी है- काल भी एक समय है। चारों उपशमकोंका यथा 'सभी मनुष्योंके तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छ्- सम्भव चौवन संख्यापर्यन्त एक साथ भी प्रवेश और वासोंका एक मुहूर्त होता है।' मरण सम्भव होनेसे नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है। उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्त है। शंका-इस तरह मिथ्यादृष्टिका भी काल एक समय । उसका कथन आगे 'संसारिणो मुक्ताश्च' इस सूत्रके क्यों नहीं होता? 'अन्तर्गत करेंगे । सासादन गुणस्थानका काल एक (जीवकी अपेक्षा उत्कर्षसे छह आवली है । असंख्यात उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं है। मिथ्यात्व गुणसमयोंकी एक आवली होती है। कहा है-असंख्यात स्थानको प्राप्त होनेवाले जीवका मरण अन्तर्मुहर्तके समयकी एक आवली होती है। संख्यात आवलीका मध्य असम्भव है । कहा है-'अनन्तानुबन्धीका एक उच्छ्वास होता है । सात उच्छ्वास का एक विसंयोजन करनेवाले वेदक सम्यग्दष्टिके मिथ्यात्व स्तोक होता है । सात स्तोकका एक लव होता है। गुणस्थानको प्राप्त होनेपर एक आवलीकाल तक साढ़ अडतीस लवकी एक नाली होती है। दो नाली अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं होता तथा एक अन्तका एक मुहूर्त होता है। तीस मुहर्तका एक दिन मुहूर्त काल तक मरण नहीं होता । सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है और पन्द्रह दिनका एक पक्ष होता है।' का भी काल एक समय नहीं है क्योंकि मरणकाल आनेपर वह गुणस्थान छूट जाता है। असंयत और सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थानका काल एक जीवकी संयतासंयत गुणस्थानको प्राप्त होनेवाला भी अन्तअपेक्षा जघन्यसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टसे मुहूर्त तक नहीं मरता अत: असंयत और संयतासंयत उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । अन्तर्मुहर्त आगे गुणित होता का भी काल एक समय नहीं होता। जाता है ऐसा आगे जानना चाहिए । असंयतसम्यग् चारों क्षपकों और अयोगकेवलियोंके. मक्तिगामी होनेदृष्टि गुणस्थानका काल एक जीवकी अपेक्षा उत्कर्ष के कारण अवान्तर में मरण सम्भव न होनेसे नाना से कुछ अधिक तेतीस सागर है। उसका खुलासा इस प्रकार है-कोई जीव एक पूर्वकोटिकी आयु जीवों और एक जीवको अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट लेकर उत्पन्न हुआ। एक अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष काल अन्तर्मुहूर्त है। सयोगकेवली का काल एक जीवके पश्चात् सम्यक्त्वको ग्रहण करके तथा तपस्या की अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है क्योंकि उस गुणकरके सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न हुआ। वहाँसे च्युत होकर स्थानको प्राप्त होनेके अनन्तर अन्तर्मुहुर्तमें अयोग: पुनः एकपूर्वकोटिकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ । आठ केवली गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है। उत्कृष्टकाल वर्षके पश्चात् संयम को स्वीकार किया। इस तरह कुछ कम पूर्वकोटि है क्योंकि जन्मसे आठ वर्षके सातिरेक तेतीस सागर काल होता है। प्रमत्त और पश्चात् तप स्वीकार करके केवलज्ञानको उत्पन्न अप्रमत्त गुणस्थानका काल एक जीवकी अपेक्षा करता है इसलिए पूर्वकोटिमें कुछ वर्ष कम हो जाते जघन्यसे एक समय है, वह इस प्रकार है--सभी जीव विशेष परिणामों के वश सर्वप्रथम अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त करते हैं । उसके पश्चात् उसके प्रतिपक्षी ६. 92 प्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त करते हैं। अत: अन्य गण- 41.8 तिर्यगसंयतसम्यग्दृष्ट्येकजीवं प्रत्युत्कर्षण स्थानमें स्थित जीव अपनी आयुमें एक समय शेष दर्शनमोहक्षपकवेदकापेक्षया त्रीणि पल्योपमानि। रहनेपर अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त करके मर जाता पश्चाद् गत्यतिक्रमः । है। इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा अप्रमत्तका काल तिर्यंचगतिमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानका काल जघन्यसे एक समय होता है । तथा अप्रमत्त गुणस्थान एक जीवकी अपेक्षा उत्कर्ष से दर्शनमोहका क्षय में स्थित जीव अपनी आयुके काल में एक समय शेष करनेवाले वेदक सम्यकदृष्टि की अपेक्षा तीन पल्योपम रहनेपर प्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त करके मरता है। है। उसके पश्चात् गति बदल जाती है] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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