Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 544
________________ 424] सर्वार्थसिद्धि मोडनीयकर्मकी उत्कृष्टस्थिति अन्य जीवोंके और विकलेन्द्रिय जीव पूर्वकोटि प्रमाण आयुका आगमके अनुसार जानना चाहिए। वह इस प्रकार बन्ध करते हैं। पीछे विदेह आदिमें उत्पन्न होते हैं। है-एकेन्द्रिय आदि जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागर, पच्चीस सागर, पचास सागर, अपरा...18111 सो सागर और एक हजार सागर होती है। इतना 8.769 विशेष है कि मोहनीयकी इस स्थितिमें सातसे गुणा और सातसे भाग देना चाहिए। अपर्याप्तक जीवोंके 310.10 सूक्ष्मसाम्पराये इति वाक्यशेषः । उक्त स्थिति पूर्ववत् पल्यके असंख्यातवें भाग और संख्यातवें भाग कम जानना।] विपाकः . . .1121 ६. 774 विशतिर्नाम . . .॥6॥ 311.12 स्वमुखेन मतिज्ञानावरणं मतिज्ञानावरण8.765 रूपेणैव । परमुखेन श्रुतज्ञानावरणरूपेणापि भुज्यते । 310.2 इतरेषां यथागमम्-या पूर्व चतसृणां 8.775 कर्मप्रकृतीनां स्थितिरुक्ता सा न त्रिगुणा किन्तु द्विगुणा । कर्तव्या ततो नामगोत्रयोर्भवति। शेषं पूर्ववत् । 312.1 प्रसंख्यातोऽन्वर्थः । अप्रसंख्यातोऽनन्वर्थः । [ अर्थात् पर्याप्तक एकेन्द्रिय जीवके नाम और गोत्रकर्मकी उत्कृष्टस्थिति एक सागरके सात भागोंमें से स यथा . . . ।।2211 दो भाग प्रमाण है। पर्याप्तक दो इन्द्रिय जीवके ६. 776 पच्चीस सागरके सात भागोंमें से दो भाग है। पर्याप्तक . तीन इन्द्रिय जीवके पचास सागरके सात भागों में से 312.3 दर्शनशक्त्युपरोधो-दर्शनशक्तिप्रच्छादो भाग है। पर्याप्तक चार इन्द्रिय जीव के सौ सागर- दनता ।। के सात भागोंमें से दो भाग है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके हजार सागरके सात भागोंमें से दो ततश्च .. 12311 भाग है। इनके जघन्य स्थिति पूर्ववत् पल्यके ६. 778 असंख्यातवें भाग और संख्यातवें भाग कम जाननी चाहिए।] 312.9 जातिविशेषावणिते एकेन्द्रियादिजीवविशेषः संस्कृते। अनुभवोदयावलीस्रोतः अनुभवोदयावलीत्रय • • • 171 प्रवाहः। ६. 767 नामप्रत्याय-12411 310.6 शेषाणामागमतः, तथाहि-असंज्ञिनः ६. 780 स्थितिरायुषः पल्योपमासंख्येयभागः, तिर्यसंज्ञी हि स्वर्गे नरके वा पल्योपमासंख्येयभागमायुर्वध्नाति । 315.3 नामप्रत्ययाः कर्मकारणभूताः। य: पूदगल: एकेन्द्रियविकलेन्द्रियास्तु पूर्वकोटिप्रमाणं, पश्चाद्विदेहा-. कर्माणि प्रारभ्यन्ते त एव कृष्यन्ते नान्ये इति । एकक्षेत्रावगाहस्थिताः--जीव ' संलग्ना इत्यर्थः । दावुत्पद्यन्ते । पञ्चरस-मधुररसे लवणरसस्यान्तर्भावात् । स्पर्श[असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके आय कर्मकी स्याष्टविधत्वात्कथं चतुःस्पर्शास्ते, इति नाशहनीयं, उत्कृष्ट स्थिति पल्यके असंख्यातवें भाग है क्योंकि शीतोष्णस्पर्शादीनां विरोधिना सहभावाभावात। तियंच असंज्ञी स्वर्ग या नरककी पल्योपमके असंख्यातवें भाग आयु का बन्ध करता है । एकेन्द्रिय इत्यष्टमोऽध्यायः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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