Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 529
________________ परिशिष्ट 2 [409 वेदाभावात् । नानाजीवापेक्षया उत्कर्षेण संवत्सरः मुपशमकानामुत्कर्षेण पूर्वकोटी। उपशमश्रेणिती हि सातिरेकः अष्टादशमासा इत्यर्थः। पतितास्ते मनःपर्ययज्ञानमपरित्यजन्तः प्रमत्ताप्रमत्त[पुरुषवेद में 'दो 'क्षपकोंका' पृथक् कथन इसलिए गुणस्थाने वर्तन्ते यावत्पूर्वकोटिकालशेषः पुनस्तदाकिया है कि आगे वेदका अभाव हो जाता है। नाना रोहणं कुर्वन्तीति देशोना। जीवोंकी अपेक्षा उत्कर्ष से कुछ अधिक एक वर्ष कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभङ्गज्ञानसे युक्त अन्तर है। कुछ अधिक एक वर्षसे १८ मास लेना , एक जीवके प्रति मिथ्यात्वका अन्तर नहीं है क्योंकि चाहिए। अन्य गुणस्थानमें कुमति आदि तीनों ज्ञान नहीं होते। ६. 118 शंका-सासादन में जानेपर अन्तर पड़ सकता है? 53.13 अवेदेषूपशान्तकषायकजीवं प्रति नास्त्यन्तरं सवेदत्वात्। उत्तर-नहीं, क्योंकि सासादन गुणस्थान सम्यक्त्व [अपगत वेदियों में उपशान्तकषाय एक जीवके प्रति ग्रहण करनेके बाद होता है और सम्यग्दष्टिके मिथ्या ज्ञान नहीं होता। मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी अवधिअन्तर नहीं है क्योंकि उपशान्तकषायसे नीचेके ज्ञानियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि एक जीवके प्रति उत्कर्षगुणस्थान नौवें आदि में वेद पाया जाता है अर्थात् से देशविरत आदि गुणस्थानके द्वारा पूर्वकोटि अन्तर नीचे गिरनेपर अवेदरूपसे उपशान्तकषाय गुणस्थान काल है। अर्थात् एक असंयतसम्यग्दृष्टि जीव संयमाको प्राप्त करना सम्भव नहीं है।] संयमको प्राप्त हुआ। कुछ कम पूर्वकोटिकाल तक संयमासंयमका पालन करके अन्त में असंयमी हो गया ६. 120 तो कुछ कम पूर्वकोटि अन्तर होता है। संयतासंयत' 54.5 अज्ञानत्रययुक्तकजीवेऽपि मिथ्यात्वस्यान्तरं एक जीवके प्रति उत्कर्षसे छियासठ सागर अन्तरनास्ति गुणान्तरेऽज्ञानत्रयव्यभिचारात् ।सासादनेऽस्ती काल है। असंयत प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानके द्वारा ति चेन्न, तस्य सम्यक्त्वग्रहणपूर्वकत्वात् सम्यग्दृष्टश्च अन्तर होने पर चार पूर्वकोटि और आठ वर्ष अधिक मिथ्याज्ञानविरोधात् । आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानि छियासठ सागर होता है क्योंकि मनुष्योंमें उत्पन्न ष्वसंयतसम्यग्दृष्ट्यंकजीवं प्रत्युत्कर्षेण पूर्वकोटी हुआ जीव आठ वर्षके अनन्तर संयतासंयतपने को देशविरतादिगुणस्थानेनान्तरमवसानकाले शेषे पुनर प्राप्त करता है। मनःपर्ययःज्ञानियों में एक जीवके संयतत्वं प्रतिपद्यत इति देशोना। संयतासंयतकजीव प्रति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। प्रत्युत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोपमाणि, असंयतप्रमत्तादिगुणस्थानेनान्तरं पूर्वकोटिचतुष्टयाष्टवषैः सातिरे- शंका-अधिक अन्तर क्यों नहीं होता? काणि मनजेषत्पन्नो हि अष्टवर्षानन्तरं संयतासंयतत्वं उत्तर-नीचे के गुणस्थानोंमें आनेपर ही अधिक प्रतिपद्यत इति । मनःपर्ययज्ञानिष्वेकजीवं प्रति अन्तर संभव है किन्तु उनमें मनःपर्ययज्ञान संभव नहीं जयत्यमत्कष्टं चान्तर्महर्तः। अधिकमपि कस्मान्नेति है। मनःपर्ययज्ञानी चारों उपशमकोंका उत्कृष्ट अन्तर चेत अधोगणस्थानेषु वर्तमानानां मनःपर्ययासंभवात्। पूर्वकोटि है क्योंकि उपशमश्रेणीसे गिरकर मनःपर्ययतेष वर्तमानानां चाधिकमन्तरं संभवतीति। चतुर्णा- ज्ञानको अपनाये हुए प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानमें 1. धवलामें लिखा है-पूर्वकोटिकाल प्रमाण संयमासंयमको पालकर मरा और देव हुआ । पु. 5, पृ०1131 2. धवला में लिखा है-एक जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। आठ वर्षका होकर एक साथ संयमासंयम और वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः अन्तर्मुहर्तमें संयमको प्राप्त करके अन्तरको प्राप्त हुआ। संयमके साथ पूर्वकोटि काल बिताकर तेतीस सागरकी आयुके साथ देव हुआ। वहाँसे च्युत होकर पूर्वकोटि आयुके साथ मनुष्य हुआ। पुनः मरकर तेतीस सागरकी आयु लेकर देव हुआ। वहां से च्युत हो पुनः पूर्वकोटि आयु लेकर मनुष्य हुआ । वहाँ दीर्घकाल तक रहकर संयमासंयमको प्राप्त हुआ। इस तरह आठ वर्ष कुछ अन्तर्मुहर्त कम तीन पूर्वकोटि अधिक 66 सागर अन्तर होता है। -पु.5, पृ० 116 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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