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सर्वार्थसिद्धि शंङ्का-सर्वघातिप्रकृतियों के उदयके अभावमें और 8. 164 देशघाती प्रकृतियोंके उदयमें जो भाव उत्पन्न होता है उसे क्षायोपशमिक कहते हैं। किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व
मति..."9॥ प्रकृतिको देशघातिपना तो संभव नहीं हैं क्योंकि आगममें उसे सर्वघाती कहा है ?
67.13 अवाग्धानात् अधस्ताद् बहुतरविषयग्रहणात् ।
अवच्छिन्नविषयत्वाद्वा रूपिलक्षणविविक्सविषयउत्तर-ऐसा कहना युक्त नहीं है, उपचारसे सम्यक् त्वाद्वा । मिथ्यात्व प्रकृतिको देशघातिपना भी सम्भव है। उपचार का निमित्त है एक देशसे सम्यक्त्वका घाती
68.2 स्वपरमनोभियंपदिश्यते यथा परमनस्थितमर्थ होना। मिथ्यात्वप्रकृतिकी तरह सम्यग्मिथ्यात्व मनसा परिविद्यत (परिच्छिद्यत) इति । प्रकृतिके द्वारा समस्त सम्यक्त्वरूप और मिथ्यात्वरूपका घात सम्भव नहीं है। सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट 68.3 यदर्थ केवन्ते सेवां कुर्वन्ति । कस्येति चेत. तत्त्वोंमें रुचिका भी अंश रहता है। सर्वज्ञके द्वारा केवलस्यैव संपन्नतत्प्राप्तिपरिज्ञाततदुपायस्याहदाउपदिष्ट तत्त्वोंमें रुचि और अरुचिरूप परिणामको देर्वा । सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं।
68.6 सुगमत्वात् सुखप्राप्त्यत्वात् । ६. 148
68.7 मतिश्रुतपद्धतिः-मतिश्रुतानुपरिपाटी । तस्या 63.11 अल्पबहुत्वम् । उपशमकानामितरगुणस्थान- वचनेन श्रुताया: सकृत्स्वरूपसंवेदनमात्रत्वं परिचिवतिभ्योऽल्पत्वात् प्रथमतोऽभिधानम्। तत्रापि त्रय तत्वम् । अशेषविशेषतः पुनश्चेतसि तत्स्वरूपपरिउपशमकाः सकषायत्वादुपशान्तकषायेभ्यो भेदेन भावनमनुभूतत्वम् । निर्दिष्टाः । प्रवेशेन तुल्यसंख्याः सर्वेऽप्येते षोडशादिसंख्याः । त्रय क्षपकाः संख्येयगुणा उपशमकेभ्यो
बहुबहुविध . . . . ||16॥ द्विगुणा इत्येवमादिसंख्या संख्याविचारे विचारितमिह
8. 195 द्रष्टव्यम् । सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयता विशेषाधिकास्तत्संयमयुक्तानामुपशमकानामिव क्षपकाणामपि ग्रह- 81.5 अपरेषां निस्सत इति पाठः । तत्र द्विः सकारणात् । संयतासंयतानां नास्त्यल्पबहुत्वमेकगुणस्थान- निर्देशस्यायमर्थो मयूरस्य कुररस्य वेति स्वतः परोपवर्तित्वात् संयतानामिव गुणस्थानभेदासंभवादिनि ।
देशमन्तरेणव कश्चित् प्रतिपद्यते। येषां तु निसृत इति
पाठस्तेषां 'अपरः' प्रतिपत्तो स्वरूपमेव शब्दमेवाश्रित्व [उपशमक उपशमश्रेणिपर आरोहण करनेवाले अन्य।
विशेषरूपतयानवधार्य प्रतिपद्यत इति व्याख्या । गुणस्णानवी जीवोंसे अल्प होते हैं इसलिए उनका प्रथम कथन किया है। उनमें भी तीन उपशमकोंको कषायसहित होनेके कारण उपशान्तकषायोंसे भिन्न निर्दिष्ट किया है। प्रवेशकी अपेक्षा इन सभीकी संख्या
व्यंजनस्य .... ||18।। सोलह आदि समान है । तीन क्षपक संख्यातगुने हैं, उपशमकोंसे दूने हैं इत्यादि संख्याका संख्याविचारमें 83.1 व्यञ्जनं शब्दादिजातं शब्दादिसंघातः। विचार किया है उसे ही यहां देख लेना चाहिए। 83.3 अन्तरेणैवकारं-एवकारं विना। सूक्ष्मसाम्पराय संयमवाले विशेष हैं क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय संयम से युक्त उपशमकोंकी तरह क्षपकोंको 9.4 भी ग्रहण किया है। संयतासंयतों में अल्पबहत्व नहीं
न चक्षु.....॥19॥ है क्योंकि उनके एक ही गुणस्थान होता है, संयतोंकी तरह उनमें गुणस्थानभेद नहीं है।]
84.2 अविदिक्कं यन्मुखदिशम्।
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