Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 531
________________ परिशिष्ट 2 [411 यदि कोई भी जीव औपशमिक सम्यक्त्वको ग्रहण तीन समय है। उनके गुणस्थानका काल उससे बहुत नहीं करता तो सात रातदिन तक ही ग्रहण नहीं है अतः वहाँ उसका अन्य गुणस्थानसे अन्तर असम्भव करता । औपशमिक सम्यक्त्वके साथ संयतासंयतोंका है। अन्तरकाल चौदह दिन है और प्रमत्तसंयत तथा 'अप्रमत्तसंयतका पन्द्रह दिन है। एक जीवके प्रति . 133 जघन्य अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट 61.1 भावः-मिथ्यादष्टिरित्यौदयिको भावो अन्तरकाल उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त है । कहा है मिथ्यात्वप्रकृतेरुदये प्रादुर्भावात् । सासादनसम्यऔपशमिक सम्यक्त्वका अन्तरकाल सात दिन, ग्दृष्टिरिति पारिणामिको भावः। नन्वनन्तानुबन्धिऔपशमिक सम्यक्त्वके साथ विरताविरतका अन्तर क्रोधाद्य दयेऽस्य प्रादुर्भावादीदयिकत्वं कस्मान्नोच्यत काल चौदह दिन और विरतोंका अन्तरकाल पन्द्रह इति चेत्, अविवक्षितत्वात्। दर्शनमोहापेक्षया हि दिन जानना चाहिए। मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानचतुष्टये भावो निरूपयितुमउपशान्तकषाय का एक जीवके प्रति अन्तर नहीं है भिप्रेतोऽत: सासादने सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-तदुभयलक्षणक्योंकि वेदकसम्यक्त्वपूर्वक होनेवाले औपशमिक- स्य त्रिविधस्यापि दर्शनमोहस्योदय-क्षय-क्षयोपशमाभासम्यक्त्वसे जीव उपशमश्रेणिपर आरोहण करता है। वात् पारिणामिकत्वम् । सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति क्षायोउससे गिरने पर पुनः उसी सम्यक्त्वसे श्रेणिपर पशमिको भावः । ननु सर्वघातिनामुदयाभावे देशआरोहण नहीं करता किन्तु अन्य सम्यक्त्वको ग्रहण घातीनां चोदये य उत्पद्यते भावः स क्षायोपशमिकः। करके या मिथ्यात्वमें जाकर पुनः सम्यक्त्वको ग्रहण न च सम्यमिथ्यात्वप्रकृतेर्देशधातित्वं संभवति, करके तब श्रेणिपर आरोहण करता है। अतः उसका सर्वघातित्वेनागमे तस्याः प्रतिपादितत्वादिति। तदअन्तर नहीं है। सासादनसम्यक्त्व, सम्यक्मिथ्यात्व युक्तम्, उपचारतस्तस्या देशघातित्वस्यापि संभवात् । और मिथ्यात्वसे युक्त एक जीवके प्रति अन्तर नहीं है उपचारनिमित्तं च देशतः सम्यक्त्वस्य घातित्वं, न हि क्योंकि एक गुणमें दूसरे गुणका विरोध होनेसे सासा- मिथ्यात्वप्रकृतिवत् सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृत्या सर्वस्य दन आदि गुणस्थानमें स्थित जीवका मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वस्वरूपस्य (सम्यक्त्वस्वरूपस्य) घातः आदि गुणस्थानसे अन्तर असम्भव है।] संभवति सर्वज्ञोपदिष्टतत्त्वेषु रुच्यंशस्यापि संभवात् । तदुपदिष्टतत्त्वेषु रुच्यरुच्यात्मको हि परिणामः 8. 130 सम्यग्मिथ्यात्वमिति । 59. 13. असंज्ञिनां नानकजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् [अब भावका कथन करते हैं-मिथ्यादृष्टि यह एक मिथ्यात्वगुणस्थानवतित्वेन तेषां सासादिनान्तरा औदयिक भाव है क्योंकि मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयमें संभवात् । होता है। सासादनसम्यग्दृष्टि यह पारिणामिक [असंज्ञियोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर भाव है। नहीं है क्योंकि असंशियोंके केवल एक मिथ्यात्वगुणस्थान ही होता है अतः उनका सासादन आदि गुण शंका-अनन्तानुबन्धि क्रोध आदि कषायके उदयमें स्थानोंसे अन्तर सम्भव नहीं है।] सासादन गुणस्थान प्रकट होता है तो इसे औदयिक क्यों नहीं कहते ? ६. 132 उत्तर-उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है। दर्शनमोहकी 60.8 अनाहारकेषु मिथ्यादृष्ट्येकजीवं प्रति अपेक्षासे ही मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानोंमें भाव नास्त्यन्तरमनाहारकत्वस्यक-द्वि-त्रिसमयत्वात् गुण बतलाना इष्ट है अतः सासादनमें सम्यक्त्व प्रकृति, स्थानस्य च ततो बहुकालत्वात् तत्र तस्य गुणान्तरे मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्वरूप दर्शनमोहकी तीनों णान्तरासंभवादिति। प्रकृतियोंका उदय, क्षय और क्षयोपशमका अभाव [अनाहारकोंमें मिथ्यादृष्टि एक जीवके प्रति अन्तर होनेसे पारिणामिक भाव कहा है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं है क्योंकि अनाहारकपनेका काल एक, दो या यह क्षायोपशमिक भाव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568