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सर्वार्थसिद्धि
[मनुष्यगतिमें सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, और एकेन्द्रियजीव विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर पुन: असंयतसम्यग्दष्टि जीव अपने-अपने गुणस्थानको छोड़- एकेन्द्रियमें उत्पन्न हो तो अन्तराल आता है। किन्तु कर पूर्वकोटिपृथक्त्वकाल होनेपर भोगभूमिमें उत्पन्न पंचेन्द्रियोंमें तो गुणस्थान बदलना सम्भव है अतः होते हैं । पीछे अपने गुणस्थान को ग्रहण करते हैं । इस । मिथ्यात्व आदिका अन्तर सम्यक्त्व आदिके द्वारा तरह एक जीवके प्रति उत्कर्ष से पूर्वकोटि पृथक्त्व लगा लेना चाहिए। अधिक तीन पल्योपम अन्तरकाल होता है।
8. 114 $. 112
51.5 पृथिव्यादिकायिकानां वनस्पतिकायिकैरन्तर50.5 देवगतौ मिथ्यादष्टेरेकजीवं प्रत्युत्कर्षेणैक- मुत्कर्षेणासंख्येयाः पुद्गलपरावर्ताः । तेषां त नरन्तरनिशत्सागरोपमाणि । तथाहि---मिथ्यात्वयुक्तोऽग्र- मुत्कर्षणासंख्येया लोका: वनस्पतिकायिकेभ्योऽन्येषाअवेयकेषुत्पद्यते पश्चात् सम्यक्त्वमादायकत्रिंशत्साग- मल्पकालत्वात् । रोपमाणि तिष्ठति। अवसानकालशेषे पुनमिथ्यात्वं
[पृथिवीकायिकोंका वनस्पतिकायिक जीवोंके द्वारा प्रतिपद्यतेऽन्यथा गत्यतिक्रमः स्यादिति देशोनानि ।
अन्तर उत्कर्षसे असंख्यात पुनलपरावर्त है और एवमसंयतसम्यग्दृष्टेरपि योजनीयम् ।
वनस्पतिकायिकोंका पृथिवीकायिक आदि के द्वारा [देवगतिमें मिथ्यादष्टि एक जीवके प्रति उत्कर्षसे
अन्तर उत्कर्षसे असंख्यातलोक है क्योंकि वनस्पतिइकतीस सागर अन्तरकाल है जो इस प्रकार है
कायिकोंसे पृथिवीकायिक आदिका काल थोड़ा है।। एक द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि उपरिमवेयकमें उत्पन्न
8. 115 हुआ। पीछे सम्यक्त्वको ग्रहण करके इकतीस सागर तक रहा । अन्त समय में पुनः मिथ्यादृष्टि हो गया।
52.3 कायवाड्.मनसयोगिनां मिथ्यादृष्ट्यादिषड्यदि ऐसा न हो तो गति बदल जायेगी। अत: देशोन
गुणस्थानानां नानकजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एक
जीवापेक्षया कथं नास्तीति चेत् कायादियोगाइकतीस सागर होता है। इसी तरह असंयत सम्यग्दृष्टिका भी अन्तरकाल लगा लेना चाहिए ।
नामन्तर्मुहूर्तकालत्वात् कायादियोगे स्थितस्यात्मनो
मिथ्यात्वादिगुणस्य गुणान्तरेणान्तरं पुनस्तत्प्राप्तिश्च 8. 113
संभवतीति । सासादनसम्यग्दृष्ट्यादीनामप्येकजीवा
पेक्षया तत एव नास्त्यन्तरम् ।। 50.9 एकेन्द्रियकजीवस्योत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र पूर्वकोटिपृथक्त्वैः षण्णवतिपूर्वकोटिभिरभ्यधिकेऽन्त
[काययोगी, वचनयोगी और मनोयोगियोंमें मिथ्यारम् । अग्रे हीत्थं सर्वत्र सागरोपमसहस्रद्वयस्य पूर्व
दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, कोटिपृथक्त्वैरभ्यधिकत्वं द्रष्टव्यम् । एकेन्द्रियविकले
अप्रमत्तसंयत और सयोगकेवलीका नानाजीवों और न्द्रियाणां च गुणस्थानान्तरासंभादिन्द्रियेणान्तरम् । एकजीवकी अपेक्षा अन पञ्चेन्द्रियाणां तु तत्संभवान्मिथ्यात्वादेः सम्यक्त्वादिनान्तरं द्रष्टव्यम् ।
शंका-एक जीवकी अपेक्षा अन्तर क्यों नहीं है ?
उत्तर–क्योंकि कायादियोगोंका अन्तर्महर्त काल है [एकेन्द्रिय एक जीवका अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व इसलिए कायादि योगमें स्थित जीवके मिथ्यात्व आदि छियानबे पूर्वकोटियोंसे अधिक दो हजार सागर है। गुणस्थानका अन्य गुणस्थानसे अन्तर करके पूनः उसी आगे इस प्रकार सर्वत्र पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो गुणस्थानमें पाना सम्भव नहीं है। सासादन सम्यग. हजार सागर जानना चाहिए । एकेन्द्रिय और विक- दृष्टि आदिका भी एक जीवकी अपेक्षा इसीलिए लेन्द्रियोंके मिथ्यात्व गुणस्थानके अतिरिक्त अन्य अन्तर नहीं है।] गुणस्थान नहीं होता इसलिए इन्द्रियों की अपेक्षा अन्तर लगा लेना अर्थात् विकलेन्द्रिय जीव एके-5. 117 न्द्रियोंमें उत्पन्न होकर पुनः विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो 53.6 पुंवेदे द्वयोः क्षपकयोरिति पृथग्वचनमृत्तरत्र
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