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इनके सिवाय अन्य लेण्याका नियम नहीं है। §. 87
39.3 शायिक सम्यक्त्वयुक्त संयतासंयतानामितर सम्यक्त्वयुक्तसंयतासंयतानामिव षडपि रज्जवः कुतो नेति नाशंकनीयं तेषां नियतत्रत्वात् कर्मभूमिजो हि मनुष्यः सप्तप्रकृतिशयप्रारम्भको भवति तद्दर्शन लाभात्प्रागेव तिर्यक्षु बद्धायुष्कस्तु संयतासंयतत्वं न प्रतिपद्यते । श्रपशमिकसम्यक्त्वयुक्त संयतासंयतानां कुतो लोकसंख्येवभाग इति चेत् मनुजेष्वेव तत्संभ वात् वेदपूर्वकौपशमिकसम्यक्त्वयुक्तो हि घेण्यारोहणं विधाय मारणान्तिकं करोति मिध्यात्वपूर्व कौशमिकयुक्तानां मारणान्तिकासंभवात् ।
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सर्वार्थसिद्धि
[शंका- क्षायिक सम्यक्त्वसे युक्त संयतासंयतों का अन्य सम्यक्त्वयुक्त संयतासंयतोंकी तरह छह राजु स्पर्शन क्यों नहीं है ?
उत्तर- ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि उनका क्षेत्र नियत है। कर्मभूमि में जन्मा मनुष्य सात प्रकृतियोंके क्षयका प्रारम्भ करता है। क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति से पहले ही जो तियंचगतिकी आयुका बन्ध कर लेता है वह तो संयतासंयतपने को प्राप्त नहीं कर सकता ।
शंका-औपमिक सम्यक्त्वसे युक्त संयतासंयतों का स्पर्शन कैसे लोकका असंख्यातवां भाग है ?
उत्तर- औपशमिक सम्यक्त्वसे युक्त संयतासंयत मनुष्यों में ही होते हैं, क्योंकि वेदकसम्यवत्वपूर्वक औपशमिक सम्यक्त्वसे युक्त मनुष्य श्रेणिपर आरोहण करके मारणान्तिक समुद्घात करता है । और मिथ्यात्वपूर्वक पशमिक सम्यग्दृष्टि मारणान्तिक समुद्घा नहीं करते।]
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§. 89
39. 12 सयोगकेवलिनां लोकस्यासंख्येयभागः कुतः । इति चेत्, आहारकावस्थायां समचतुरस्ररज्ज्वादि व्याप्त्यभावात् दण्डद्वयावस्थायां कपाटद्वयावस्थायां च सयोगकेवली औदारिकौदारिक मिश्रशरीरयोग्यपुद् - गलादानेनाहारकः ।
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उक्तं च-
दंडगे ओराले कवाटजुगले य पयरसंवरणे । मिस्सोरावं भणिर्य सेस लिए जान कम्मइयं ॥
दण्डकवाटयोश्च पिण्डतोऽल्पक्षेत्रा समचतुरस्ररज्ज्वादिव्यास्यभावात् सिद्धो लोकस्यासंख्येय-भागः । अनाहारकेषु सासावनस्प षष्ठपृथ्वीतो नित्य तिर्यग्लोके प्रादुर्भावात् पञ्च, अच्युतादागत्य तत्रैवोस्पादात्पडित्येकादश । ननु पूर्व द्वादशोक्ता इदानी श्वेकादशेति पूर्वापरविरोधः तदयुक्तम्, मारणान्तिकापेक्षा पूर्व तथाभिधानात् । न च मारणान्तिकावस्थायामनाहारकत्वं किम्भूत्पादावस्थायाम्। सासा दनश्च मारणान्तिकमेर्केन्द्रियेषु करोति नोत्पादं तदा सासादनत्वत्यागात् ।
[ शंका-सयोगकेवलियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग कैसे है ?
उत्तर -- आहारक अवस्थामें समचतुरस्र रज्जु आदिकी व्याप्तिका अभाव होनेसे सयोगकेवलीके आहारक अवस्थामे स्पर्शन लोकका असंख्यातवां भाग है तथा विस्तार और संकोचरूप दोनों दण्डसमुद्घातों में तथा दोनों कपाटसमुद्घातोंमें औदारिक और औदारिकमिध शरीरके योग्य पुलोंको ग्रहण करनेसे सयोगकेवली आहारक होते हैं। कहा भी है
'विस्तार और संकोचरूप दोनों दण्डसमुद्घातोंमें औदारिकाययोग होता है। विस्तार और संकोचरूप दोनों कपाट समुद्घातोंमें तथा संकोचरूपे प्रतर समुद्घातमें औदारिकमिश्रकाययोग होता है । शेष तीनमें कार्मणकाययोग होता है।'
1. 'कम्मदओसेस तत्व जणहारी ॥ प्रा० पंसं 1/199
दण्ड और कपाट में पिण्डरूपसे अल्पक्षेत्र होने के कारण समचतुरखरज्जु आदिकी व्याप्तिका अभाव होनेसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन सिद्ध होता है । अनाहारकोंमें सासादन सम्यग्दृष्टि के छठी पृथिवीसे निकलकर तिर्यग्लोक में उत्पन्न होनेसे पाँच राजु होते हैं और अच्युतस्वर्गसे आकर तिर्यग्लोक में उत्पन्न होने से छह राजु होते हैं इस तरह ग्यारह राजु होते हैं ।
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