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परिशिष्ट 2
§. 93
तावदेकेन्द्रियो भूत्वा कश्चिज्जीवः षट्षष्टिसहस्रद्वा41.10 मिध्यादृष्टिमनुष्यैकजीवं प्रत्युत्कर्षेण त्रीणि त्रिंशदधिकशतपरिमाणानि जन्ममरणान्यनुभवति एन्योपमानि पूर्व कोटिपृथक्त्वैः सप्तचत्वारिंशत् पूर्व- 66132 । तथा स एव जीवस्तस्यैव मुहूर्तस्य मध्ये कोटिभिरभ्यधिकानि । तथाहि — नपुंसक - स्त्री-पुंवेदे - द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियो भूत्वा यथासंख्यमशीतिषष्ठिनाष्टावष्टौ वारान् पूर्वंकोट्यायुषोत्पद्यावान्तरेऽन्त- चत्वारिंशच्चतुर्विंशतिजन्ममरणानि स्वकृतकर्मवैचियादनुभवति ||8016014012411 सर्वेऽप्येते समु. दिताः क्षुद्रभवा एतावन्तो भवन्ति 1166336।। उक्तं
च-
मुहूर्त मध्ये पर्याप्तक मनुष्यक्षुद्रभवेनाष्टौ वारानुत्पद्यते । पुनरपि नपुंसकस्त्री वेदेनाष्टावष्टौ पुंवेदेन तु सप्तति । ततो भोगभूमी त्रिपल्योपमायुष्कः, भोगभूमिजानां नियमेन देवेषूत्पादात् । पश्चाद् गत्यतिक्रमः । असंयतसम्यग्दृष्टिमनुष्यैकजीवं प्रत्युत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि । कर्मभूमिजो हि मनुष्यः क्षायिक सम्यक्त्वयुक्तो | दर्शनमोहक्षपवेदकयुक्तो वा भोगभूमिजमनुष्येषूत्पद्यते । इति मनुष्यगत्यपरित्यागात् सातिरेकाणि पश्चाद्गत्यतिक्रमः ।
[ मनुष्य गतिमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका काल एक जीवकी अपेक्षा उत्कर्षसे पूर्वकोटि पृथक्त्व अर्थात् संतालीस पूर्वकोटिसे अधिक तीन पल्य है । उसका खुलासा इस प्रकार है-नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके साथ आठ-आठ बार पूर्वकोटिकी आयुसे उत्पन्न होकर अवान्तर में अन्तर्मुहूर्तके अन्दर लकयपर्याप्तक मनुष्यके क्षुद्रभवके साथ आठ बार उत्पन्न होता है । उसके पश्चात् पुनः नपुंसकवेद और स्त्रीवेदके साथ आठ-आठ बार उत्पन्न होता है किन्तु पुरुषवेदके साथ सात-सात बार उत्पन्न होता है । उसके बाद भोगभूमिमें तीन पल्यकी आयुसे उत्पन्न होता है । भोगभूमिके जीव मरकर देवोंमें ही उत्पन्न होते हैं । अतः उसके बाद गति बदल जाती है। असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानका उत्कृष्ट काल एक जीवकी अपेक्षा उत्कर्षसे तीन पल्य है । क्योंकि कर्मभूमिका जन्मा ( बद्धमनुष्यायु) मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्वसे युक्त हो या दर्शनमोहके क्षपक वेदकसम्यक्त्वसे युक्त हो, मरकर भोगभूमिज मनुष्योंमें उत्पन्न होता है। अतः मनुष्यगतिके न छूटनेसे साधिक तीन पल्य काल होता है । उसके बाद गति बदल जाती है ]
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[403
"" तिणिसया छत्तीसा छावट्टीसहस्सजम्ममरणाणि । एवदिया खुद्दभवा हवंति अंतोमुहस्स ॥ विगलिदिए असीबि सट्ठी चालीसमेव जाणाहि । पंचेंदिचवीसं खुद्दभवतोमुहुस्स ॥"
यदा चैवं मुहूर्तस्य मध्ये एतावन्ति जन्ममरणानि भवन्ति तदैकस्मिन्नुच्छ्वासेऽष्टादश जन्ममरणानि लभ्यन्ते । तत्रैकस्य क्षुद्रभवसंज्ञा । उत्कर्षेणानन्तकालोऽसंख्यातपुद्गलपरिवर्तनलक्षणो निरन्तरमेकेन्द्रियत्वेन मृत्वा मृत्वा पुनर्भवनात् । ततो विकलेन्द्रियः पञ्चेन्द्रियो वा भवति ।
[ एकेन्द्रिय एक जीवके प्रति जघन्यकाल क्षुद्रभवग्रहण है । वह क्षुद्रभव किस प्रकार है यह कहते हैंउक्त लक्षणवाले मुहूर्त में एकेन्द्रिय होकर कोई जीव छियासठ हजार एक सौ बत्तीस जन्म मरणका अनुभव करता है। तथा वही जीव उसी मुहूर्तके भीतर दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय होकर यथाक्रमसे अस्सी, साठ, चालीस और चौबीस जन्म मरणोंको अपने द्वारा किये गये कर्मबन्धकी विचित्रता से अनुभव करता है । ये सभी क्षुद्रभव मिलकर छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस होते हैं । कहा है – 'छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस जन्ममरण होते हैं । एक अन्तर्मुहूर्त में उतने ही क्षुद्रभव होते हैं। इसी अन्तर्मुहूर्तमें विकलेन्द्रियके अस्सी, साठ और चालीस तथा पञ्चेन्द्रियके चौबीस क्षुद्रभव जानना चाहिए ।'
§. 95
जब एक मुहूर्त के भीतर ( अन्तर्मुहूर्त में ) इतने जन्ममरण होते हैं तब एक उच्छ्वास में 18 जन्ममरण प्राप्त होते हैं । उनमेंसे एककी संज्ञा क्षुद्रभव है । णम् । तत्कीदृशमिति चेदुच्यते । उक्तलक्षणमुहूर्तमध्ये उत्कर्षसे अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परावर्त
42.7
एकेन्द्रियैकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रह
1. गो० जी० मा० 122,123 2. कल्लाणा- लोयणा 6 ।
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