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परिशिष्ट 2
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६. 98
स्थान पर्यन्त कषाय और गुणस्थान के बदल जानेकी 43.8 एकजीवस्य मिथ्यात्वयुक्तस्त्रीवेदकालो जघन्ये
अपेक्षासे एक जीव के मनोयोगी की तरह जघन्यसे नान्तर्मुहूर्तः । ततो गुणान्तरसंक्रमः । उत्कर्षण- एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्महत काल है। पल्योपमशतपृथक्त्वम् । तथाहि-स्त्रीवेदयुक्तो 8. 100 मिथ्यादष्टिदेवेष आयर्बध्नाति । ततस्तिर्पग्मनुष्येषु 44.8 विभङ्गज्ञानिमिथ्यादष्ट्येकजीवं प्रत्युत्कर्षण नारकसम्मळुनवर्ज तावद्यावत्पल्योपमशतपथक्त्वं
नारकापेक्षया त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि । पर्याप्तश्च ततो वेदपरित्यागः । स्त्रीवेदासंयतसम्यग्दष्ट्येकजीवं
विभङ्गज्ञानं प्रतिपद्यत इति पर्याप्तिसमापकान्तर्म हर्तप्रति उत्कर्षेण पञ्चपञ्चाशतपल्योपमानि, गहीत
हीनत्वाद्देशोनानि । सम्यक्त्वस्य स्त्रीवेदेनोत्पादाभावात् पर्याप्तः सम्यक्त्वं ग्रहीष्यतीति पर्याप्तिसमापकान्तर्मुहूर्तहीनत्वाद्दे- [विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि एक जीवके उत्कर्षसे शोनानि । नपुंसकवेदासंयतसम्यग्दष्ट्यकजीवं नारकों की अपेक्षासे तेतीस सागर काल है। पर्याप्त प्रत्युत्कर्षेण सप्तमपृथिव्यां त्रयस्त्रिशसागरोपमाणि । जीव ही विभंगज्ञान को प्राप्त होता है इसलिए तत्र च पर्याप्तः कियत्कालं विश्रम्य विशुद्धो भूत्वा पर्याप्तिके समापक अन्तर्महतके कम कर देनेसे देशोन सम्यक्त्वं गृह णात्यन्ते त्यजति चेति देशोनानि । लेना चाहिए।
[एक जीवके मिथ्यात्वयुक्त स्त्रीवेदका काल जघन्य- . 103 से अन्तर्महर्त है । उसके बाद गुणस्थान बदल जाता 45.3 कृष्णनीलकापोतलेश्यमिथ्यादष्टयकजीवं प्रति है। उत्कर्ष से सौ पल्योपमपृथक्त्व है जो इस प्रकार जधन्येनान्तर्महर्तः, तिर्यग्मनष्यापेक्षया तेषामेव लेश्याहै-स्त्रीवेदसे युक्त मिथ्यादृष्टि देवगतिकी आयु का परावर्तसंभवात । सर्वत्र च लेश्यायक्तस्यान्तर्महर्तः बन्ध करता है। वहाँसे तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न तिर्यग्मनुष्यापेक्षया द्रष्टव्यः । उत्कर्षेण नारकापेक्ष या होता है। इस तरह नारक और सम्मूर्च्छनको छोड़कर यथासंख्यं सप्तमपञ्चम-तृतीयपृथिव्यां त्रयस्त्रिशत् सौ पल्योपमपृथक्त्व तक स्त्रीवेद सहित रहता है सप्तदशसप्तसारोपमाणि देवनारकाणामवस्थितफिर वेद बदल जाता है । स्त्रीवेद सहित असंयत लेण्यत्वात् । व्रजन्नियमेन तल्लेश्यायुक्तो व्रजति आगसम्यग्दृष्टि एक जीवका उत्कर्षसे पचपन पल्य काल च्छतो नियमो नास्तीति सातिरेकाणि । उक्तलेश्याहै.। सम्यग्दृष्टि तो स्त्रीवेदके साथ उत्पन्न नहीं होता युक्तासंयतसम्यग्दागकजीवं प्रत्युत्कर्षण नारकाअतः स्त्रीवेदी जीव पर्याप्त अवस्थामें सम्यक्त्वको पेक्षया उक्तान्येव सागरोपमाणि। पर्याप्तिसमापग्रहण करता है इसलिए पर्याप्तिकी पूर्ति में लगने- कान्तर्महूर्ते सप्तम्यां मारणान्तिके च सम्यक्त्वाभावावाला अन्तर्मुहूर्त कम कर देनेसे देशोन (कुछ कम देशोनानि । तेजः पद्यलेश्यामिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यपचपन पल्य) होता है । नपुंसकवेदी असंयत सम्यग्- 'दृष्ट्य कजीवं प्रत्युत्कर्षेण यथासंख्यं प्रथमद्वादशदष्टि एक जीव का उत्कर्षसे सातवें नरकमें तेतीस स्वर्गापेक्षया द्वे सागरोपमे अष्टादश च । तद्य क्तानां सागर काल है। क्योंकि वहाँ पर्याप्त होकर कुछ मारणान्तिकोत्पादः संभवतीति सातिरेकाणि । शुक्लकाल विश्राम करके विशुद्ध होकर सम्यक्त्वको ग्रहण लेश्यमिथ्यादष्ट्यैकजीवं प्रत्युत्कर्षेण एककरता है और अन्तमें छोड़ देता है इसलिए देशोन त्रिंशत्सारोपमाणि अग्रग्रेवेयकदेवापेक्षया तेषां (कुछ कम) तेतीससागर होता है।]
मारणान्तिकोत्पादावस्थायामपि शुक्ललेश्यासंभवात्
सातिरेकाणि । संयतासंयतशुक्ललेश्यकजीवं प्रति 8..99
गणलेश्यापरावर्तापेक्षेतराभ्यां जघन्ये नकः समयः 44.5 चतुःकषायाणां मिथ्यादृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां उत्कर्षेणान्तर्मुहर्तः । कषायगुणपरावर्तापेक्षया एकजीवं प्रति मनोयोगि
[कृष्ण, नील या कापोतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि एक वज्जघन्येनैक: समयः, उत्कर्षेणान्तर्मुहुर्तः ।
जीवके प्रति जघन्यसे अन्तर्महर्तकाल है क्योंकि तियंच [चारों कषायों का मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तगुण- और मनुष्यकी अपेक्षासे उनकी लेश्यामें परिवर्तन
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