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सर्वार्थसिद्धि
रूप है। इस कालमें निरन्तर एकेन्द्रिय रूपसे मर- समयः । तथाहि-केषांचिद् गुणान्तरयुक्तवाड्.मनमरकर पुनः जन्म लेते रहते हैं। उसके बाद विकले- सान्यतरयोगकालान्त्यसमये यदा (यथा) सम्यन्द्रिय या पंचेन्द्रिय होते हैं।
ग्मिथ्यात्वसंक्रमणं तथैवान्येषां योगान्तरानुभूत
सम्यग्मिथ्यात्वकालान्त्यसमये वाड्.मनसान्यतरयोग8.95
संक्रम इति क्षपकोपशमकानामप्येवमेकः समयो 42.11 पञ्चेन्द्रियमिध्यादृष्ट्येकजीवं प्रति उत्कर्षण द्रष्टव्यः, शेषाणां सासादनादीनां मनोयोगिवत् । यथा सागरोपमसहस्र (-स्र) पूर्वकोटीपृथक्त्वैः षण्णवति मनोयोगिनो योगगणपरावर्तापेक्षेतराभ्यां जघन्योपूर्वकोटिभिरभ्यधिकम् । तथाहि-नपुंसकस्त्रीपुंवेदे त्कृष्टः कालस्तद्वत्तेषामपि । संज्ञित्वेनाष्टावष्टौ वारान् पूर्वकोट्यायुषोत्पद्यते । तथासंज्ञित्वेन चावान्तरेऽन्तर्मुहूर्तमध्ये पञ्चेन्द्रियक्षुद्र- [वचनयोगी और मनोयोगियोंमें मिथ्यादृष्टि आदिभवेनाष्टौ । पुनरपि नपुंसकस्त्रीपुंवेदे संज्ञित्वासंज्ञि
का कालयोगपरिवर्तन और गुणस्थानपरिवर्तनको त्वाभ्यामष्टचत्वारिंशत्पूर्वकोट्यो योजनीयाः। एवं
अपेक्षा जघन्यसे एक समय है जो इस प्रकार हैवसकायेऽपि पूर्वकोटिपृथक्त्वैः षण्णवतिपूर्वकोटिभि
विवक्षित योगसे युक्त मिथ्यात्व आदि गुणस्थानके रभ्यधिकत्वं द्रष्टव्यम् ।
कालके अन्तिम समय में वचनयोग और मनोयोग में [पंचेन्द्रियमें मिथ्यादृष्टि एक जीवकी अपेक्षा से किसी एक योगका बदलना योगपरिवर्तन है उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्व अर्थात् छियानवे पूर्व- उसकी अपेक्षासे एक समय काल होता है । तथा कोटियोंसे अधिक एक हजार सागर काल होता है। गुणस्थानान्तरसे युक्त वचनयोग और मनोयोगमेंसे उसका खुलासा इस प्रकार है-नपुंसकवेद, स्त्रीवेद किसी एक योगके कालके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व और पुरुषवेदमें संज्ञीरूपसे आठ-आठ बार एक पूर्व- आदि गुणस्थानका बदलना गुणस्थान परिवर्तन है कोटिकी आयु लेकर उत्पन्न होता है। इसी तरह उसकी अपेक्षासे एक समय होता है । उत्कर्षसे अन्तअसंज्ञी रूपसे उत्पन्न होता है। बीचमें अन्तर्मुहूर्तमें मुहूर्तकाल है अर्थात् योगकाल पर्यन्त; क्योंकि वचनआठ बार क्षुद्रभवधारी पंचेन्द्रिय होता है। पुनः योग और मनोयोगका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। दूसरी बार नपुंसकवेद स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें संज्ञी उसके बाद योग बदल जाता है। सम्यग्मिध्यादृष्टिऔर असंजीके रूपमें अड़तालीस पूर्वकोटि लगा लेना का नानाजीवोंकी अपेक्षा योगपरिवर्तन और गुणचाहिए। इसी तरह त्रसकायमें भी पूर्वकोटिपृथक्त्व स्थान परिवर्तनकी अपेक्षासे जघन्यसे एक समय है के साथ छियानबे पूर्वकोटि अधिक जानना चाहिए। जो इस प्रकार है-'किन्हीके अन्यगुणस्थानसे युक्त
वचनयोग और मनोयोगमेंसे किसी एक योगके काल8. 97
के अन्त समयमें जैसे सम्यक् मिथ्यात्व गुणस्थानमें 42.16 वाड्.मनसयोगिषु मिश्यादपट्यादीनां योग- संक्रमण हो जाता है वैसे ही दूसरोंके योगान्तरसे परावर्तगुणपरावर्तापेक्षया जघन्येनैकः समयः। अनुभूत सम्यक् मिथ्यात्व गुणस्थानके कालके अन्त तथाहि-विवक्षितयोगयुक्तमिथ्यात्वादिगणस्थानकाला- समयमें वचनयोग और मनोयोगमें से कोई एक योग न्स्यसमये वाड्.मनसान्यतरयोगसंक्रमणं योगपरावर्त- बदल जाता है। क्षपक और उपशमकोंके भी इसी स्तदपेक्षया गुणान्तरयुक्वाड्.मनसान्यतरयोगकाला- प्रकार एक समय जानना चाहिए। शेष सासादन न्त्यसमये मिथ्यात्वादिगुणसंक्रमो गुणपरावर्तस्तद- आदिका काल मनोयोगीकी तरह जानना। अर्थात् पेक्षया वा। उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तो योगकालं यावदित्यर्थः। जैसे मनोयोगियों के योगपरिवर्तन और गुणस्थान पश्चात्तेषां योगान्तरसंक्रमः । सम्यरमिथ्यादष्टेन ना- परिवर्तनकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल होता जीवापेक्षया योगगुणपरावर्तमपेक्ष्य जघन्येनक: है उसी प्रकार उनका भी जानना।]
1. उक्कस्सेण सागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । 136। षट्ख० पु० ४ । 'उत्कर्षेण साग
रोपमसहस्र पूर्वकोटिपृथक्त्वैरभ्यधिकम् ।'-सर्वार्थ० 118 ।
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