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चारों गुणस्थानवर्ती नारकियोंका स्पर्मन लोकका असंख्यातवाँ भाग है । दूसरी पृथिवी मध्यलोकसे नीचे एक राजके परिमाणपर स्थित है तथा उससे नीचे की तीसरी आदि पृथिवियाँ भी एक-एक राजूका अन्तरात देकर स्थित हैं अतः उन पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यदृष्टि नारकियोंने कमसे एक, दो, तीन, चार और पाँच राजुका स्पर्शन किया है। सम्यरमध्यादृष्टि मारणान्तिकसमुद्घात, उत्पाद और आयुबन्धके समय नियमसे तीसरे गुणस्थानको छोड़ देते हैं क्योंकि तीसरे गुणस्थान में ये तीनों कार्य नहीं होते । अतः स्वस्थान विहारकी अपेक्षा उनका स्पर्शन लोकका असंख्यातवां भाग है। संयत सम्यग्दृष्टि नारकियोंका स्वर्शन मारणान्तिककी अपेक्षा भी लोकका असंख्यातवाँ भाग है क्योंकि वे नियमसे मनुष्योंमें ही उत्पन्न होते हैं और मनुष्योंका क्षेत्र अल्प है ।
सर्वार्थसिद्धि
सातवीं पृथिवी में मिथ्यादृष्टि नारकियोंने मारणान्तिक और उत्पादकी अपेक्षा छह राजुका स्पर्श किया है। शेष तीन गुणस्थानवर्ती नारकियों का स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग है।
शंका- स्वस्थानविहारकी अपेक्षा और मारणान्तिककी अपेक्षा इन तीन गुणस्थानवर्ती नारकियोंका स्पर्शन क्यों नहीं कहा ?
उत्तर- सप्तम पृथिवीके नारकी मारणान्तिक और उत्पाद से पूर्व नियमसे उन गुणस्थानोंको छोड़ देते हैं ।
सासादन सम्यग्दृष्टि भरकर नरकमें नहीं जाता ऐसा नियम है अतः सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यचका स्पर्शन लोकान में बादर पृथिवी आदिमें मारणान्तिककी अपेक्षा भी सात राजु है। मिध्यादृष्टि मनुष्योंका स्पर्शन मारणान्तिककी अपेक्षा सर्वलोक है। अथवा पृथिवीकायिक आदिके मनुष्योंमें उत्पन्न होनेकी अपेक्षा सर्वलोक है; क्योंकि जो मरकर जहाँ उत्पन्न होता है वह उत्पाद अवस्थामें वही कहा जाता है अर्थात् पृथिवीकायिक बाविसे मरकर मनुष्योंमें उत्पन्न होनेवाले जीव उत्पाद अवस्था में मनुष्य ही कहलाते हैं। सर्वलोक स्पर्शन धागे सर्वत्र इसी प्रकार
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1. गो० जो० ना० । मूलाचार गा० 1134
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जानना चाहिए। तीसरे नरक गये मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि देवोंका लोकके अग्रभाग में बादरपृथिवीकाधिक आदिमें मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा नौ राजु स्पर्शन है। नौ राजु स्पर्शन आगे भी इसी प्रकार जानना चाहिए। और सम्यग्मिथ्यादृष्टि तथा असंयत सम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न नहीं होते। उनका विहारवत्स्व स्थानकी अपेक्षा आठ राजू स्पर्णन है ।
§. 77
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35.4. पञ्चेन्द्रियमिपावृष्टिभिः अष्टौ देवान् प्रति सर्वलोको मनुष्यान् प्रति सयोगकेवलिनां दण्डाद्यव स्थायां वाङ्मनसवर्गणामवलम्ब्यात्मत्र देशपरिस्पन्दाभावात्लोकस्यासंख्येयभागः ।
[पंचेन्द्रिय मिध्यादृष्टियोंका आठ राजु स्पर्शन देवोंकी अपेक्षा जानना अर्थात् पंचेन्द्रिय मिथ्या दृष्टिदेव तीसरे नरक तक विहार करते हैं अतः मेरुके मूलसे ऊपर छह राजु और नीचे दो राजु, इस प्रकार आठ राजु क्षेत्र के भीतर सर्वत्र उक्त प्रकारसे पंचेन्द्रिय पाये जाते हैं। सर्वलोक स्पर्शन मनुष्योंकी अपेक्षा है सयोगकेवलियोंके दण्ड आदि अवस्थामें वचनवर्गणा मनोवर्गणाका अवलम्बन लेकर आत्मप्र देशोंका परि स्पन्दन नहीं होता अतः लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है ]
5.85
37.9 सप्तनरकेषु नारका यथासंख्यमेतल्लेश्या भवन्ति । उक्तं च
"काळ काळ तह काउणीला गीला व जीलकिन्हाए । किव्हा य परमकिण्हा लेस्सा रयणाविपुढवीसु ॥' (मूलाचार ११३४) तत्र षष्ठपृथिव्यां कृष्णलेष्यैः सासादनसम्यग्दृष्टिभि मरणान्तिकाद्यपेक्षया पञ्च पञ्चमपृथिव्यां कृष्णलेश्याऽविवक्षया नीललेश्यैश्चतस्रो रज्जवः स्पृष्टाः । तृतीयपृथिव्यां नीललेश्याविवक्षया कापोततले रज्जू स्पृष्टे । सप्तमपृथिव्यां यद्यपि कृष्णलेश्यास्ति तथापि मारणान्तिकाद्यवस्थायां सासादनस्य तत्र न सा संभवति तदा नियमेन मिध्यात्वग्रहणादिति नोदाहृता । तेजोलेश्यैः संयतासंयतः प्रथमस्वर्गे
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