Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 517
________________ परिशिष्ट 2 1397 चाहिए। परस्थानविहारकी अपेक्षा तो सासादन रज्जवः स्पृष्टाः । सम्यगमिथ्यादृष्टीनां मारणान्तिसम्यग्दृष्टि देवोंका प्रथम तीन पृथिवियोंमें विहार कोत्पादायुर्बन्धावस्थायां नियमेन तद्गुणस्थानत्यागात् करनेसे दो राजु और ऊपर अच्युत स्वर्ग तक विहार स्वस्थानविहारापेक्षया लोकस्यासंख्येयभागः स्पर्शकरनेसे छह राजू इस तरह आठ बटे चौदह राजु नम्। असंयतसम्यग्दृष्टीनां मारणान्तिकापेक्षयापि स्पर्शन होता है अर्थात् सनाडीके चौदह राजुओंमेंसे लोकस्यासंख्येयभागः तेषां नियमेन मनुष्येष्वेवोत्पाआठ राजु प्रमाण । सर्वत्र आठ बटे चौदह इसी प्रकार दात्तेषां चाल्पक्षेत्रत्वात् । जानना । तथा बारह बटे चौदह इस प्रकार जानना सप्तम्यां मिथ्यादृष्टिभिर्मारणान्तिकोत्पादापेक्षया षड्सातवीं पृथ्वीमें सासादन आदि गुणस्थानोंको छोड़ रज्जवः शेषस्त्रिभिलॊकस्यासंख्येयभागः। स्वस्थानकर मिथ्यात्व गुणस्थानवाला जीव ही नियमसे । विहारापेक्षया मारणान्तिकापेक्षयाप्येषां स्पर्शनं कूतो मारणान्तिक समुद्धात करता है ऐसा नियम है। और न कथितमिति चेत् तत्रत्यनारकाणां मारणान्तिछठी पृथ्वीसे मध्य लोक पर्यन्त पाँच राजू सासादन कोत्पादात्पूर्वकाले नियमेन तद्गुणस्थानत्यागात् । सम्यग्दृष्टि मारणान्तिक करता है । और मध्यलोकसे सासादनोऽधो न गच्छतीति नियमात्तिर्यक्सासादनस्य लोकके अग्रभागमें बादर पृथ्वीकाय, जलकाय और लोकाग्रे बादरपृथिव्यादिषु मारणान्तिकापेक्षयापि वनस्पतिकायमें मारणान्तिक करनेसे सात राजू, इस साजरा तरह बारह राजू स्पर्श होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि वायुकाय, तेजस्काय, नरक और सर्व सूक्ष्मकाय, इन मनुष्यमिथ्यादष्टिभिर्मारणान्तिकापेक्षया सर्वलोकः चार स्थानोंको छोड़कर सर्वत्र उत्पन्न होता है। स्पष्टः। पृथिवीकायिकादेस्तत्रोत्पादापेक्षया वा । कहा भी है-'तेजस्काय, वायुकाय, नरक और सूक्ष्म- यो हि यत्रोत्पद्यते तस्योत्पादावस्थायां तद् व्यपदेशो कायोंको छोड़कर, अन्यत्र सर्वत्र सासादन सम्यग्दृष्टि भवति । सर्वलोकस्पर्शनं चाने सर्वत्रेत्थं द्रष्टव्यम् । जीव उत्पन्न होता है।' कुछ प्रदेश सासादन, जीवके मिथ्यादष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिदेवानां तृतीयपृथिवीस्पर्णन योग्य नहीं होते, इसलिए देशोन (कुछ कम) गतानां लोकाग्रे बादरपृथिव्यादिषु मारणान्तिकाकहा है। आगे सर्वत्र स्पर्शनके अयोग्य प्रदेशों की पेक्षया नव रज्जवः । नवरज्जुस्पर्शनमग्रेऽपीत्थं अपेक्षा देशोनपना जानना।] द्रष्टव्यम्। सम्यगमिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टीनां त्वेकेन्द्रियेषूत्पादाभावात् विहारापेक्षयाष्टौ रज्जवः । 8.76 [सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंयत सम्यग्दष्टि देवों के द्वारा 35.1 सम्यग्मिथ्यादष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टिभिदेवैः पर- परस्थान विहारकी अपेक्षा र परस्थान विहारकी अपेक्षा आठ राजु स्पृष्ट किये गये स्थानविहारापेक्ष याष्टौ रज्जवः स्पृष्टाः । संयतासंयतः हैं। स्वयंभूरमणके पंचमगुणस्थानवर्ती तिर्यचोंके द्वारा स्वयंभरमणतिर्यगभिरच्युते मारणान्तिकापेक्षया षड्- अच्युत स्वर्गमें मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा ज्जवः स्पृष्टाः। प्रमत्तसंयतादीनां नियतक्षेत्रत्वात् भवा छह राजू स्पष्ट किये गये हैं। प्रमत्तसंयत आदि न्तरे नियतोत्पादस्थानत्वाच्च उत्पादे चतुर्थगुणभावात् गुणस्थानवी जीवोंका क्षेत्र नियत है, भवान्तरमें समचतुरस्ररज्जूप्रदेशव्याप्त्यभावाल्लोकस्यासंख्येय उत्पादस्थान भी नियत है तथा उत्पाद अवस्थामें भागः। सयोगकेवलिना क्षेत्रवल्लोकस्यासंख्येयभागोऽ• . चौथा गुणस्थान हो जाता है अतः समचतुरस्र रज्जू संख्येया भागाः सर्वलोको वा स्पर्शनम् सर्वनारकाणां प्रदेशमें व्याप्त न होनेसे उनका स्पर्शन लोकका नियमेन संज्ञिपर्याप्तकपञ्चेन्द्रियेषु तिर्यक्षु मनुष्येषु वा असंख्यातवाँ भाग है। सयोगकेवलियोंका स्पर्शन प्रादुर्भावः । तत्र प्रथमपृथिव्याः संनिहितत्वेनाधो- क्षेत्रकी तरह लोकका असंख्यातवा भाग, असंख्यात रज्जपरिमाणाभावात्तत्र त्यनारकैश्चतुर्गुणस्थान र्लोक - बहुभाग और सर्वलोक है । सब नारकी नियमसे संज्ञी स्यासंख्येयभागः स्पृष्टः। द्वितीयपृथिव्यास्तिर्यग्लो- पर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यंचों अथवा मनष्यों में उत्पन्न कादधो रज्जूपरिमाणत्वादध:पृथिवीनां चैकंकाधिक- होते हैं। उनमें-से पहली पृथिवी तो मध्यलोकके रज्जूपरिमाणत्वात् तत्रत्यमिथ्यादृष्टिसासादन- निकट है, मध्यलोकसे नीचे पहली पथिवी तक एक सम्यग्दष्टिभिर्यथासंख्यमेका द्वे तिस्रश्चतस्रः पञ्च राजुका भी परिमाण नहीं है। अतः पहली पथिवीके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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