Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 516
________________ 396] साथासद्धि 8. 60 न्द्रियोंका नहीं, क्योंकि पंचेन्द्रिय तो नरक लाकम, 29.12 क्षेत्र, सयोगकेवलिनां दण्डकवाटावस्थापेक्षया मध्यलोकमें तथा देवलोक में पाये जाते हैं ? उत्तरलोकस्यासंख्येयंभागः क्षेत्रम्, प्रतरापेक्षया असंख्येय ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि पंचेन्द्रिय भी त्रसभागाः वातवलयत्रयादर्वागेव तदात्मप्रदेश निरन्तरं नालीके भीतर नियत स्थानोंमें ही पाये जाते है, लोकव्याप्तेः । लोकपूरणापेक्षया सर्वलोकः । अतः उनका क्षेत्र भी लोकका असंख्यातवां भाग बनता है। (सयोगकेवलियोंका क्षेत्र दण्ड और कपाटरूप 8.75 समुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग है। प्रतररूप समुद्घातकी अपेक्षा असंख्यात बहुभाग क्षेत्र 33.1 स्पर्शनम् । असंख्यातयोजनकोट्याकाशप्रदेशहै, क्योंकि तीनों बातवलयसे पहले तक ही उनकी परिमाणा रज्जूः । तल्लक्षणसमचतुरस्र रज्जुत्रिचत्वा. रिंशदधिकशतत्रयपरिमाणो लोकः। तत्र स्वस्थानआत्माके प्रदेशोंसे बिना किसी अन्तरालके लोक विहार: परस्थानविहारो मारणन्तिकमुत्पादश्च व्याप्त होता है। और लोक पूरण समुद्घातकी अपेक्षा जीवैः क्रियते । तत्र स्वस्थानविहारापेक्षया सासादनसयोगकेवलियों का क्षेत्र सर्वलोक है।। सम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः स्पष्टः। सर्वत्राग्रे लोकस्यासंख्येयभागः स्वस्थानविहारापेक्षया द्रष्टव्यः । 5.62 परस्थानविहारापेक्षया तु सासादनदेवानां प्रथम 30.5 एकेन्द्रियाणां क्षेत्र सर्वलोकः, तेषां सर्वत्र पथिवीत्रये विहाराद् रज्जद्वयम् । अच्युतान्तोपरि संभवात विकलेन्द्रियाणां लोकस्यासंख्येयभागः। विहारात षडरज्जव इत्यष्टोचतवंशभागाः। त्रसनाडा देवनारकमनुष्यवत्तेषां नियतोत्पादस्थानत्वात् । ते हि चतुर्दशरज्जूनां मध्ये अष्टौ रज्जव इत्यर्थः । सर्वअर्ध तृतीयद्वीपे लवणोदकालोद-समुद्रद्वये स्वयम्भूर- त्राप्यष्टौ चतुर्दशभागा इत्थं द्रष्टव्याः। तथा द्वादश । मणे द्वीपे समुद्रे चोत्पद्यन्ते, न पुनरसंख्यातद्वीपसमुद्रेषुः तथाहि सप्तमपृथिव्यां परित्यक्तसासादनादिगणस्थान नरकस्वर्गादिषु भोगभूमिषु म्लेच्छादिषु च। पञ्चे- एव मारणान्तिकं करोतीति नियमात् । षष्ठीतो मध्यन्द्रियाणां मनुष्यवत् । इत्ययुक्तम्, मनुष्याणां प्राग्मा- लोके पञ्चरज्जः सासादनो मारणान्तिकं करोति । नुषोत्तरादेव संभवाल्लोकस्यासंख्येयभागो युक्तो न मध्यलोकाच्च लोकाग्रे बादरपथिव्यां वनस्पतिकायिपूनः पञ्चेन्द्रियाणां नारकतिर्यग्लोके देवलोके च केष सप्तरज्जव इति द्वादश । सासादनो हि वायुकायतत्संभवात् । तदसुन्दरं तेषामपि त्रसनाड्या मध्ये तेजस्कायनरकसर्वसूक्ष्मकायलक्षणानि चत्वारि स्थाननियतेष्वेव स्थानकेषूत्पादसंभवात् लोकस्यासंख्येव- कानि वर्जयित्वान्यत्र सर्वत्रोत्पद्यते । तदुक्तम्-- भागोपपत्त। 'वज्जिय ठाणचउक्कं तेऊ वाऊ यणिरयसहमं च । [एकेन्द्रियों का क्षेत्र सर्वलोक है क्योंकि वे सर्वत्र । अण्णत्य सव्वट्ठाणे उववज्जदि सासणो जीवो।' पाये जाते हैं । विकलेन्द्रियों का क्षेत्र लोकका असं- केचित्प्रदेशाः सासादनस्य स्पर्शनयोग्या न भवन्तीति ख्यातवां भाग है क्योंकि देव और नारकियों और देशोनाः । सर्वत्र चाग्रे स्पर्शनायोग्यप्रदेशापेक्षया देशोमनुष्यों की तरह विकलेन्द्रिय भी नियत स्थानमें नत्वं द्रष्टव्यम् । उत्पन्न होते हैं। वे अढाई द्वीपमें लवणोद और [आगे स्पर्शनका कथन करते हैं । असंख्यात करोड कालोद समद्रमें तथा स्वयंभ रमणद्वीप और स्वयंभ- योजन प्राकाश प्रदेशों के परिमाणवाली एक राज रमण समद्र में उत्पन्न होते हैं। शेष असंख्यात द्वीप होती है । और तीन सौ तेतालीस घन राज प्रमाण समद्रोंमें नरक और स्वर्गादिमें भोगभमियोंमें और लोक होता है। उसमें जीवों के द्वारा स्वस्थानविहार, म्लेच्छादिमें विकले न्द्रिय जीव उत्पन्न नहीं होते। परस्थानविहार, मारणान्तिकसमुद्घात और उत्पाद पंचेन्द्रियों का क्षेत्र मनुष्यों की तरह कहा है। किया जाता है। उसमें से स्वस्थानविहार की अपेक्षा शंका----यह युक्त नहीं है क्योंकि मनुष्य तो मानुषो- सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग त्तर पर्वतसे पहले तक ही पाये जाते हैं अतः उनका क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आगे भी सर्वत्र स्वस्थान क्षेत्र तो लोकका असंख्यातवाँ भाग उचित है। पंचे- विहारकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग जानना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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