Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 519
________________ परिशिष्ट 2 [399 मारणान्तिकाद्यपेक्षया साधरज्जुः स्पृष्टा । पद्मलेश्यः नियमसे वह मिथ्यात्वमें चला जाता है इसलिए यहाँ संयतासंयतैः सहस्रारे मारणान्तिकादिविधानात पंच उसका कथन नहीं किया है। रज्जवः स्पृष्टाः । शुक्ललेश्यमिथ्यादृष्ट्यादिसंयता तेजोलेश्यावाले संयतासंयत जीवोंने प्रथम स्वर्ग पर्यन्त संयतान्तरणान्तिकाद्यपेक्षया षट्रज्जव: स्पृष्टाः । मारणान्तिक समुद्घात आदि करनेकी अपेक्षा डेढ सम्यग्मिथ्यादृष्टिभिस्तु मारणान्तिके तद्गुणस्थान राज स्पष्ट किया है। पद्मलेश्यावाले संयतासंयतोंने त्यागाद्विहारापेक्षया षडरज्जव: स्पृष्टाः । अष्टावपि सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त मारणान्तिक आदि करनेकी कुतो नेति नाशङ्कनीयम्, शुक्ललेश्यानामधो विहारा अपेक्षा पाँच राजु स्पृष्ट किये हैं। शुक्ललेश्याबालें भावात् । यथा च कृष्णलेश्यादित्रयापेक्षयावस्थित मिथ्यादष्टिसे लेकर संयतासंयत पर्यन्त जीवोंने मारलेश्या नरिकाः, तथा तेजोलेश्यादित्रयापेक्षया देवा णान्तिक आदिकी अपेक्षा छह राजु स्पृष्ट किये हैं। अपि । तदुक्तम् किन्तु मारणान्तिक समुद्घात होनेपर सम्यग्मिथ्या'तेऊ तेऊ तह तेऊपम्मा पम्मा य पम्मसुक्काय। दृष्टि उस गुणस्थान को छोड़ देता है अतः उनमें सुक्का य परमसुक्कालेस्सा भवणादिदेवाणं ।। विहार की अपेक्षा छह राज स्पर्शन होता है। -(प्रा० पंचसं० 189) शंका-विहारकी अपेक्षा आठ राजु स्पर्श क्यों नहीं तद्यथा भवनवासिव्यन्त रज्योतिष्केषु जघन्या तेजो- कहा ? लेश्या । सौधर्मशानयोर्मध्यमा। सानत्कुमारमाहेन्द्र समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी राहिए क्योंकि योरुत्कृष्टा तेजोलेश्या जघन्यं पद्यलेश्याविवक्षया । शुक्ललेश्यावाले देवोंका नीचे विहार नहीं होता। ब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठशक्रमहाशुक्रषु मध्यमा पालेश्या । शतारसहस्रारयोरुत्कृष्टा पद्यलश्या जैसे कृष्ण आदि तीन लेश्याओंकी अपेक्षा नारकी जघन्य शक्ललेश्याविवक्षया। आनतप्राणतारणा- जीवोंकी लेश्या अवस्थित होती है वैसे ही तेजोलेश्या च्युतनवग्रं वेयकेषु मध्यमा शुक्ललेश्या। नवानुदिश- आदि तीन लेश्याओंकी अपेक्षा देव भी अवस्थित लेश्यापञ्चानुत्तरेषत्कृष्टा । उक्तं च वाले होते हैं। कहा भी है-भवनवासी आदि देवोंमें 'तिण्हं दोण्हं दोहं छण्हं दोण्हं च तेरसण्हं च ।। तेजोलेश्या, तेजोलेश्या, तेज और पद्मलेश्या, पालेश्या, एत्तो य चोदसम्हं लेस्सा भवादिदेवाणं ॥' पद्म और शुक्ललेश्या, शुक्ललेश्या और परमशुक्ल__-(पंच० गा० 188) लेश्या होती है। इसका अभिप्राय यह है कि भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंमें जघन्य तेजोलेश्या होती ततोऽन्यत्र लेश्यानियमाभावः । है। सौधर्म और ऐशान स्वर्गों में मध्यमतेजोलेश्या [सातों नरकों में नारकियोंके ये लेश्या होती हैं। होती है। सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गमें उत्कृष्ट कहा भी है-'रत्नप्रभा आदि पृथिवियों में क्रमसे तेजोलेश्या तथा अविवक्षासे जघन्य पद्यलेश्या होती है। कापोत, कापोत, कापोत-नील, नील, नील-कृष्ण, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र और महाशुक्र कृष्ण और परमकृष्ण लेश्या होती हैं।' उनमें-से छठी स्वर्गों में मध्यम पद्मलेश्या होती है। शतार और प्रथिवी में कृष्णलेश्यावाले सासादन सम्यग्दृष्टि नार सहस्रार स्वर्गों में उत्कृष्ट पद्मलेश्या तथा अविवक्षासे कियों ने मारणान्तिक आदिकी अपेक्षा पांच राज जघन्य शुक्ललेश्या होती है । आनत, प्राणत, आरण, और पांचवीं पथ्वीमें कृष्णलेश्याकी विवक्षा न करके अच्यत और नौ ग्रेवेयकोंमें मध्यम शुक्ललेश्या होती नीललेश्यावाले नारकियों ने चार राजु स्पष्ट किये है। नौ अनुदिशों और पांच अनुसरोंमें उत्कृष्ट शुक्ल. हैं। तीसरी पृथ्वीमें नीललेश्याकी विवक्षा न करके लेश्या होती है। कहा भी हैकापोत लेश्यावाले नारकियों ने दो राजु स्पृष्ट किये हैं। सातवीं पृथिवीमें यद्यपि कृष्णलेश्या है तथापि भवनवासी आदि देवोंमें से तीनमें, दोमें, दोमें, छ मारणान्तिक आदि अवस्थामें सासादन सम्यग्दष्टिके में, दोमें, तेरह में और चौदहमें (उक्त क्रमसे) लेश्या वहाँ कृष्णलेश्या नहीं होती, क्योंकि उस अवस्थामें होती है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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