Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 513
________________ परिशिष्ट 2 [393 ६. 37 द्वयषण्णवतिलक्षनवनवतिसहस्रन्यधिकशतपरिमाणा: 23.5 सम्यगित्यविरोधः । सम्यगमिथ्यादष्टेनिम- (29699103) । तदुक्त्त-- ज्ञानं वा केवलं न संभवति । तस्याज्ञानत्रयमिश्रज्ञान- 'छ सण्णवेण्णिअट्रयणवतियणव पंच होंति ह पमत्ता। त्रयाधारत्वात् । उक्तं च ताणद्धमप्पमत्ता इति ।' 'मिस्से णाणाणतयं मिस्सं अण्णाणतिदयेण' इति। [अप्रमत्त संयत संख्यात हैं अर्थात प्रमत्त संयतों से तेन ज्ञानानुवादे तस्य वृत्तिकारैरनभिधानं परमार्थ - आधे हैं-दो करोड़ छियानबे लाख निन्यानबे हजार तस्तु तस्याज्ञानप्ररूपणायामेवाभिधानं द्रष्टव्यं तद्- एक सौ तीन हैं। कहा भी है-प्रमत्त संयत ज्ञानस्य यथावस्थितार्थविषयत्वाभावात् । 59398206 हैं और अप्रमत्त उनसे आधे हैं] [सम्यमिथ्यादष्टिके न तो अकेला ज्ञान ही होता है चत्वार उपशमकास्ते प्रत्येकमेकत्रैकत्र गुणस्थाने और न अज्ञान ही होता है। किन्तु उसके तीन अष्टसु-अष्टसु समयेषु एकस्मिन्नेकस्मिन् समये यथाअज्ञानोंसे मिश्रित तीन ज्ञान होते हैं। कहा भी है- संख्यं षोडश चतुर्विशतिः त्रिंशत् षत्रिशत द्विचत्वा'मिश्र गुणस्थानमें तीन ज्ञान तीन अज्ञानोंसे मिले रिशत् अष्टचत्वारिंशत् द्विःचतुःपञ्चाशद् भवन्तीति । हुए होते हैं।' इसीरो ज्ञानकी अपेक्षा कथन करते अष्टसमयेषु चतुर्गणस्थानवतिनां सामान्येनोत्कृष्टा हए सर्वार्थसिद्धिकारने उसका कथन नहीं किया, ___ संख्या 16,24,30,36,42,48,54,54। विशेषेण तु प्रथमादिसमयेष्वेको वा द्वौ वा त्रयो वेत्यादि षोडपरमार्थ तो उसका अज्ञान प्ररूपणमें ही कथन देखना चाहिए क्योंकि सम्यग्मिथ्यादष्टि का ज्ञान शाद्युत्कृष्टसंख्या यावत् प्रतिपत्तव्या। उक्तं च-- यथावस्थित अर्थको नहीं जानता।] 'सोलसगं चउवीसं तीसं छत्तीसमेव जाणाहि । वादालं अडदालं दो चउवण्णा य उवसमगा।' 8.45 प्रवेशेनैको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षेण चतुःपञ्चा24.15 संख्या, सासादनसम्यग्दष्ट्यादिसंयतासंय शदिति तु वृत्तिकारैरुत्कृष्टाष्टमसमयप्रवेशापेक्षया तान्ताः पल्योपमासंख्येयभागप्रमिताः। शब्दतश्चात्र प्राक्तम् । स्वकालन समुराद प्रोक्तम् । स्वकालेन समुदिताः संख्येया नवनवत्यधिकसाम्यं नार्थतः परस्परं स्तोकबहुत्वभेदात्। तत्र शतद्वयपार शतद्वयपरिमाणा एकत्रकत्र गुणस्थाने भवन्ति ।2991 प्रथमापेक्षया द्वितीया बहवः। द्वितीयापेक्षया ततीया तदुक्तम्बहवः । संयतासंयतास्तु सर्वतः स्तोकाः। प्रमत्तसंयताः णवणवदी दोणि सया एअट्ठाणम्मि उवसता ॥ कोटिपथक्त्वसंख्या:-कोटिपञ्चकत्रिनवतिलक्षाष्ट इति। नवतिसहस्रषडधिकशतद्वयपरिमाणा भवन्ति चार उपशमकों में से प्रत्येक एक-एक गणस्थानमें (59398206)। आठ-आठ समयोंमेंसे एक-एक समय में क्रमसे १६, [आगे संख्या कहते हैं-सासादन सम्यग्दृष्टिसे 24,30,36,४2,48,54,54 होते हैं। आठ समयोंलेकर संयतासंयत पर्यन्त प्रत्येककी संख्या पल्पोपमके में चार गुणस्थानवतियोंकी सामान्यसे उत्कृष्ट असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इस संख्या में केवल संख्या 16,24,30,36,४2,48,54,54 होती है। शब्दों से समानता है अर्थरूपसे नहीं, क्योंकि संख्या विशेषसे प्रथमादि समयों में एक अथवा दो अथवा में कमती बढ़तीपना है। सासादनसम्यग्दृष्टि की तीन इत्यादि 16 उत्कृष्ट संख्या पर्यन्त जानना अपेक्षा मिश्र गुणस्थान-वालोंकी संख्या अधिक है चाहिए। कहा है-'उपशमकों की संख्या सोलह, और मिश्रसे सम्यग्दृष्टियोंकी संख्या बहुत है। चौबीस, तीस, छत्तीस, बयालीस, अड़तालीस, चौवन संयतासंयत तो सबसे कम हैं। प्रमत्त संयतोंकी संख्या और चौवन जानो।' कोटि पृथक्त्व प्रमाण है अर्थात् पाँच करोड़ तिरानबे प्रवेशकी अपेक्षा एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्टसे लाख अठानबे हजार दो सौ छह है।] चौवन जो सर्वार्थसिद्धिकार ने कहा है वह उत्कृष्टसे 24.17 अप्रमत्तसंयताः संख्येयाः । तदर्धन कोटि- आठवें समयमें प्रवेशकी अपेक्षा कहा है। अपने काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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