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परिशिष्ट 2
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2- संभव नहीं है।
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नहीं, क्योंकि द्रव्यवेदी स्त्रियोंके क्षायिक सम्यक्त्व संयम, उपशम सम्यक्त्व और दोनों आहारक, इनमेंसे
एकके होने पर शेष नहीं होते।' 'आहारया दोषिण'से 17.5 अपर्याप्तावस्थायां देवानां कथमोपशमिकं तय - आहारक और आहारकमिश्र लेना चाहिए। क्तानां मरणासंभवात् । तदनुपपन्नं मिथ्यात्वपूर्वकोपशमिकयुक्तानामेव मरणासंभवात वेदकपूर्वका ग्रोप-8. 28 शमिकयुक्तास्तु नियमेन श्रेण्यारोहणं कुर्वन्तीति श्रेण्या- 19.7 नववेयकवासिनामहमिन्द्रत्वात् कथं धर्मश्रवरूढान् चारित्रमोहोपशमेन सह मृतानपेक्ष्यापर्याप्ता- णमिति चेत्, उच्यते--कश्चित् सम्यग्दृष्टिः परिपाटी वस्थायामपि देवानामौपशमिकं संभवति।
करोति तां श्रुत्वाऽन्यस्तत्र स्थित एव सम्यक्त्वं [शंका-अपर्याप्त अवस्थामें देवोंके कैसे प्रौपश- गृहति । अथवा प्रणामादिकं (प्रमाणादिक) तेषां मिक सम्यक्त्व हो सकता है, क्योंकि प्रौपशमिकसम्य- न (?) विद्यते तत्त्वविचारस्तु लिङ्गिनामिव विद्यते क्त्वसे युक्त जीवोंका मरण असंभव है ? उत्तर- इति न दोषः।
ऐसा कहना ठीक नहीं है। जो जीव मिथ्यात्व गुण- शंका-नव अवेयकवासी देव ता अहमिन्द्र होते हैं 3 स्थानसे .औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करते हैं उनके धर्मश्रवण कैसे संभव है ? उत्तर-कोई सम्य3 उनका ही मरण असंभव है, किन्तु जो वेदकसम्यक्त्व- दृष्टि पाठ करता है उसे सुनकर दूसरा कोई वहीं 3 पूर्वक औपशमिक सम्यक्त्व से युक्त होते हैं वे नियम- रहते हुए सम्यक्त्वको ग्रहण करता है। अथवा उनमें 3 से श्रेणिपर आरोहण करते हैं। श्रेणिपर आरूढ़ प्रमाण नय आदिको लेकर चर्चा नहीं होती। लिगि3 होकर चारित्रमोहनीयके उपशमकके साथ मरणको योंकी तरह सामान्य तत्त्वविचार कोई होता है अतः 3 प्राप्त हुए जीव मरकर नियमसे देव होते हैं। उन दोष नहीं है।]
देवोंके अपर्याप्तावस्थामें भी ग्रौपशमिक सम्यक्त्व होता है।
8.30
20.5 संसारिक्षायिकसम्यक्त्वस्योत्कृष्टा स्थितिः ६. 27
त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि । सागरोपमस्य लक्षणं18.2 परिहारशुद्धिसंयतानामोपशमकं कुतो "दहकोडाकोडिओ पल्लजाव, सा सायरु उच्चइ एक्कनास्तीति चेदुच्यते, मनःपर्ययपरिहारशुद्धयोपशमिक- ताव।" सान्तमुहूर्ताष्टवर्षहीनपूर्वकोटिद्वयाधिकानि । सम्यक्त्वाहारकर्धीनां मध्येऽन्यतरसंभवे परं त्रितयं न पश्चात् संसारिविशिष्टत्वं तस्य व्यावर्तते । तथाहि संभवत्येव । यतो मनःपर्यये तु मिथ्यात्वपूर्वकोपश- -कश्चित् कर्मभूमिजो मनुष्य:मिकप्रतिषेधो द्रष्टव्यो न वेदकपूर्वस्य । उक्तं च- 'पध्वस्स दु परिमाणं सर खलु सदसहस्सकोडीओ। 'मणपज्जवपरिहारो उबसमसम्मत्तहारया दोण्णि ।
छप्पण्णं च सहस्सा णायव्वा वासगणनाए ।' एदेसि एक्कगवे 'सेसाणं संभवो णत्थि ।'
इत्येवंविधवर्षपरिमाणपूर्वकोट्यायुरुत्पन्नो गर्भाष्टमआहारया दोण्णिा...--आहारकाहारकमिश्रको
वर्षानन्तरमन्तर्मुहूर्तेन दर्शनमोहं क्षपयित्वा क्षायिक[परिहार शुद्धि संयतोंके औपशमिकसम्यक्त्व क्यों ।
सम्यग्दृष्टि: संजातः । तपश्चरणं विधाय सर्वार्थसिद्धानहीं होता? इसका उत्तर है कि मनःपर्यय, परिहार
वुत्पन्नस्तत आगत्य पुनः पूर्वकोट्यायुरुत्पन्नः, कर्मशुद्धि, औपशमिक सम्यक्त्व और आहारकऋद्धि में-से
क्षयं कृत्वा मोक्षं गतः । तस्याधिककालावस्थित्यसंभकिसी एकके होनेपर शेष तीन नहीं होते। किन्तु
वात् । यद्भवेऽसौ दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भको भवति मनःपर्ययज्ञान के साथ मिथ्यात्वगुणस्थानपूर्वक होने
ततोऽन्यद्भवत्रयं नातिक्रामतीति तदुक्तं-- वाले औपशमिक सम्यक्त्व का निषेध जानना चाहिए,
'खवणाए पट्टयगो जम्मि भवे नियमदो तदो अण्णं । वेदकसम्यक्त्वपूर्वक होनेवाले औपशमिक सम्यक्त्व णाकार
णाकामदि तिण्णि भवे दसणमोहम्मि खीणम्मि ।' का नहीं। कहा भी है-..'मनःपर्यय, परिहारशुद्धि
(प्रा० पञ्चसं० 1/203) 1. गो० जी०, गा० 728 । प्रा० पञ्चसं० 11/94 ‘णत्वित्ति असेसयं जाणे ।' 2. पु. कोडिसदसहस्साइं।'बोद्धव्वा वासकोडीणं ।।-सर्वा०सि० उद्धृत । जम्बू०प्र० 13/1.2
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