Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 511
________________ परिशिष्ट 2 [391 2- संभव नहीं है। NNN w w w w N नहीं, क्योंकि द्रव्यवेदी स्त्रियोंके क्षायिक सम्यक्त्व संयम, उपशम सम्यक्त्व और दोनों आहारक, इनमेंसे एकके होने पर शेष नहीं होते।' 'आहारया दोषिण'से 17.5 अपर्याप्तावस्थायां देवानां कथमोपशमिकं तय - आहारक और आहारकमिश्र लेना चाहिए। क्तानां मरणासंभवात् । तदनुपपन्नं मिथ्यात्वपूर्वकोपशमिकयुक्तानामेव मरणासंभवात वेदकपूर्वका ग्रोप-8. 28 शमिकयुक्तास्तु नियमेन श्रेण्यारोहणं कुर्वन्तीति श्रेण्या- 19.7 नववेयकवासिनामहमिन्द्रत्वात् कथं धर्मश्रवरूढान् चारित्रमोहोपशमेन सह मृतानपेक्ष्यापर्याप्ता- णमिति चेत्, उच्यते--कश्चित् सम्यग्दृष्टिः परिपाटी वस्थायामपि देवानामौपशमिकं संभवति। करोति तां श्रुत्वाऽन्यस्तत्र स्थित एव सम्यक्त्वं [शंका-अपर्याप्त अवस्थामें देवोंके कैसे प्रौपश- गृहति । अथवा प्रणामादिकं (प्रमाणादिक) तेषां मिक सम्यक्त्व हो सकता है, क्योंकि प्रौपशमिकसम्य- न (?) विद्यते तत्त्वविचारस्तु लिङ्गिनामिव विद्यते क्त्वसे युक्त जीवोंका मरण असंभव है ? उत्तर- इति न दोषः। ऐसा कहना ठीक नहीं है। जो जीव मिथ्यात्व गुण- शंका-नव अवेयकवासी देव ता अहमिन्द्र होते हैं 3 स्थानसे .औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करते हैं उनके धर्मश्रवण कैसे संभव है ? उत्तर-कोई सम्य3 उनका ही मरण असंभव है, किन्तु जो वेदकसम्यक्त्व- दृष्टि पाठ करता है उसे सुनकर दूसरा कोई वहीं 3 पूर्वक औपशमिक सम्यक्त्व से युक्त होते हैं वे नियम- रहते हुए सम्यक्त्वको ग्रहण करता है। अथवा उनमें 3 से श्रेणिपर आरोहण करते हैं। श्रेणिपर आरूढ़ प्रमाण नय आदिको लेकर चर्चा नहीं होती। लिगि3 होकर चारित्रमोहनीयके उपशमकके साथ मरणको योंकी तरह सामान्य तत्त्वविचार कोई होता है अतः 3 प्राप्त हुए जीव मरकर नियमसे देव होते हैं। उन दोष नहीं है।] देवोंके अपर्याप्तावस्थामें भी ग्रौपशमिक सम्यक्त्व होता है। 8.30 20.5 संसारिक्षायिकसम्यक्त्वस्योत्कृष्टा स्थितिः ६. 27 त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि । सागरोपमस्य लक्षणं18.2 परिहारशुद्धिसंयतानामोपशमकं कुतो "दहकोडाकोडिओ पल्लजाव, सा सायरु उच्चइ एक्कनास्तीति चेदुच्यते, मनःपर्ययपरिहारशुद्धयोपशमिक- ताव।" सान्तमुहूर्ताष्टवर्षहीनपूर्वकोटिद्वयाधिकानि । सम्यक्त्वाहारकर्धीनां मध्येऽन्यतरसंभवे परं त्रितयं न पश्चात् संसारिविशिष्टत्वं तस्य व्यावर्तते । तथाहि संभवत्येव । यतो मनःपर्यये तु मिथ्यात्वपूर्वकोपश- -कश्चित् कर्मभूमिजो मनुष्य:मिकप्रतिषेधो द्रष्टव्यो न वेदकपूर्वस्य । उक्तं च- 'पध्वस्स दु परिमाणं सर खलु सदसहस्सकोडीओ। 'मणपज्जवपरिहारो उबसमसम्मत्तहारया दोण्णि । छप्पण्णं च सहस्सा णायव्वा वासगणनाए ।' एदेसि एक्कगवे 'सेसाणं संभवो णत्थि ।' इत्येवंविधवर्षपरिमाणपूर्वकोट्यायुरुत्पन्नो गर्भाष्टमआहारया दोण्णिा...--आहारकाहारकमिश्रको वर्षानन्तरमन्तर्मुहूर्तेन दर्शनमोहं क्षपयित्वा क्षायिक[परिहार शुद्धि संयतोंके औपशमिकसम्यक्त्व क्यों । सम्यग्दृष्टि: संजातः । तपश्चरणं विधाय सर्वार्थसिद्धानहीं होता? इसका उत्तर है कि मनःपर्यय, परिहार वुत्पन्नस्तत आगत्य पुनः पूर्वकोट्यायुरुत्पन्नः, कर्मशुद्धि, औपशमिक सम्यक्त्व और आहारकऋद्धि में-से क्षयं कृत्वा मोक्षं गतः । तस्याधिककालावस्थित्यसंभकिसी एकके होनेपर शेष तीन नहीं होते। किन्तु वात् । यद्भवेऽसौ दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भको भवति मनःपर्ययज्ञान के साथ मिथ्यात्वगुणस्थानपूर्वक होने ततोऽन्यद्भवत्रयं नातिक्रामतीति तदुक्तं-- वाले औपशमिक सम्यक्त्व का निषेध जानना चाहिए, 'खवणाए पट्टयगो जम्मि भवे नियमदो तदो अण्णं । वेदकसम्यक्त्वपूर्वक होनेवाले औपशमिक सम्यक्त्व णाकार णाकामदि तिण्णि भवे दसणमोहम्मि खीणम्मि ।' का नहीं। कहा भी है-..'मनःपर्यय, परिहारशुद्धि (प्रा० पञ्चसं० 1/203) 1. गो० जी०, गा० 728 । प्रा० पञ्चसं० 11/94 ‘णत्वित्ति असेसयं जाणे ।' 2. पु. कोडिसदसहस्साइं।'बोद्धव्वा वासकोडीणं ।।-सर्वा०सि० उद्धृत । जम्बू०प्र० 13/1.2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568