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सर्वार्थसिद्धि
13.12 औदारिक-वैक्रियिकाहारकलक्षणत्रयस्य षट्- उत्तर---ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि सात पर्याप्तीनां च योग्यपुद्गलादानं नोकर्म ।
प्रकृतियोंकी क्षपणाके प्रारम्भक वेदकसम्यक्त्वसे 13. 13. अाविष्टः परिणतः ।
युक्त जीव कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि होकर जब 13. 15. अप्रकृतनिराकरणाय अप्रकृतस्याप्रस्तुतस्य
क्षायिकसम्यक्त्वके अभिमुख होता है तब यदि वह मुख्यजीवादेनिराकरणाय । प्रकृतस्य प्रस्तुतस्य नाम
मरता है तो कृतकृत्य वेदक कालके अन्तर्मुहूर्त स्थापनाजीवादेनिरूपणाय ।
प्रमाण चार भागोंमें-से यदि प्रथम भागमें मरता है
तो देवोंमे उत्पन्न होता है, दूसरे भागमें मरने पर 8. 23
देव या मनुष्योंमें उत्पन्न होता है, तीसरे भागमें प्रमाणनय.61
मरने पर देव, मनुष्य या तिर्यंचोंमें उत्पन्न होता है
और चतुर्थ भागमें मरने पर चारोंमें से किसी भी 8. 24
गतिमें उत्पन्न होता है, अतः वेदक सम्यग्दृष्टिके 15. 5. प्रगृह्य-परिच्छिद्य । प्रमाणत:---प्रमाणेनार्थ,
तियंचगति और नरकगतिमें उत्पन्न होने में कोई पश्चात् स्वरूपादिचतुष्टयापेक्षयासत्त्वमेव पररूपादि
विरोध नहीं है, इसी तरह तिथंच अपर्याप्तकोंके भी चतुष्टयापेक्षयाऽसत्त्वमेवेत्यादिरूपतया, परिणतिवि
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व जानना चाहिए। शेषात प्रवीणिताविशेषात् । यदि वा परिणतिविशे
17.1 तिरश्चीनां क्षायिकं नास्ति। कुत इति चेदुषात सत्वासत्त्वनित्यत्वानित्यत्वादिलक्षणमर्थगतं परिणामविशेषमाश्रित्य ।
च्यते-कर्मभूमिजो मनुष्य एव दर्शनमोहक्षपण
प्रारम्भको भवति । क्षपणप्रारम्भकालात्पूर्व तिर्यक्षु निर्देशस्वामित्व...॥7॥
बद्घायुष्कोऽप्युत्कृष्टभोगभूमिजतिर्यक्पुरुषेष्वेवोत्पद्यते
न तिर्यस्त्रीषु । तदुक्तम्६. 26 16.6 नरकगतौ पूर्व बद्धायुष्कस्य पश्चाद् गहीत- 'दसणमोहक्खवगो पट्टवगो कम्मभूमिजावोदा क्षायिकक्षयोपशमिकसम्यक्त्वस्याधः पृथिव्यामुत्पादा
णियमा मणुसगदीए मिट्ठवगो चावि सम्वत्था भावात् । प्रथमपथिव्यां पर्याप्तकापर्याप्तकानां क्षायिक
(कसायपा० 106) क्षायोपशमिकं चास्ति । ननु वेदकयुक्तस्य तिर्यक्नर- पट्टवगो प्रारम्भकः । णिवगो स्फेटिकः । केष'त्पादाभावात् कथमपर्याप्तकानां तेषां क्षायोपश- [तिर्यचोंके क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता, क्योंकि मिकमिति । तदयुक्तं, सप्तप्रकृतीनां क्षपणाप्रारम्भ- कर्मभूमिमें जन्मा हुआ मनुष्य ही दर्शन मोहके कवेदकयुक्तस्य कृतकरणस्य जीवस्यान्तर्मुहूर्ते सति क्षपणका प्रारम्भ करता है। क्षपण प्रारम्भ करनेसे क्षायिकाभिमुखस्य तत्रोत्पादे विरोधाभावात् । एवं पहले तिर्यंचोंकी आयु बाँध लेने पर भी वह मरतिरश्चामप्यपर्याप्तकानां क्षायोपशमिक शेयम् । कर उत्कृष्ट भोगभूमिके तिथंच पुरुषोंमें ही उत्पन्न [जिसने पहले नरकगतिकी आयुका बन्ध किया है होता है तियंचस्त्रियोंमें नहीं। कहा भी है 'दर्शन और पीछे क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्वको मोहकी क्षपणाका प्रारम्भक नियमसे मनुष्य गतिमें ग्रहण किया है वह जीव नीचेके नरकोंमें उत्पन्न कर्मभूमिमें जन्मा जीव ही होता है और निष्ठापक नहीं होता । अतः पहले नरकमें पर्याप्तक और सब गतियों में होता है।' गाथामें आये 'पटवयो। अपर्याप्तक नारकियोंके क्षायिक और क्षायोपशमिक शब्द का अर्थ प्रारम्भक है और 'णिवगो' का अर्थ सम्यक्त्व होते हैं।
पूरक है ।] शंका-वेदक सम्यक्त्व सहित जीव तिर्यंचों में नरकों 17.4 मानुषीणां भाववेदस्त्रीणां न द्रव्यवेदस्त्रीणां में उत्पन्न नहीं होता। तब कैसे उनके अपर्याप्त तासां क्षायिकासंभवात । अवस्था में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सम्भव है ? मानुषी का अर्थ भाववेदी स्त्री है, द्रष्यवेदी स्त्री
कर
1. उत्पद्यते हि वेदकदृष्टिः स्वमरेषु कर्मभूमिनृषु ।
कृतकृत्यः क्षायिकदृग् बदायुष्कश्चतुर्गतिषु ।'
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